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तुलसी सन्देश

 बसंत पंचमी का दिन था। रामघाट पर बहुत भीड़ थी। इस वर्ष अकाल पड़ा था। गाँवों-देहातों से गरीब जनता शहरों में उमड़ी आती थी। धनी-मानी लोग भी कितने को खिलाते! एक को दो तो दस हाथ फैले हुए दिखते। लोग देने में संकोच करने लगे थे। पर बसंत पंचमी को नदी में डुबकी लगाना पवित्र कर्म है, और डुबकी के बाद अन्न-दान महादान। धनी-मानी और मध्यमवर्गीय लोग अपने साथ खिचड़ी का चावल ले आते और नहाने के बाद गरीबों को मुठ्ठी, दो मुठ्ठी अन्न दान करते जाते। क्या पता इन रवायतों को इसीलिए बनाया गया हो कि धर्म के लाभ से अथवा भय से साधन-सम्पन्न लोग गरीब जनता की कुछ मदद कर दें। घाट पर देने वाले और लेने वालों के अतिरिक्त कुछ कथावाचक लोग भी बैठे थे। लोग नहाने के बाद कथा सुनने के लिए उनके सामने बैठ जाते, थोड़ी कथा सुनते, थोड़ा संसार बतियाते, दो मुठ्ठी अन्न या कुछ मुद्राएं चढ़ाकर आगे बढ़ जाते।

 
एक वयोवृद्ध कथावाचक अपनी चौकी पर बैठे लोगों की राह तक रहे थे। सामने बिछे अंगोछे पर न तो अन्न न ही कोई मुद्रा, बस देवता को चढ़ाए कुछ पुष्प पड़े हुए थे। कदाचित कभी वे उत्तम कथावाचक रहे हों, इसीलिए तो रामघाट जैसी जगह पर खुद की छोटी सी दो कमरों की कोठी थी। पर अब न उनके गले में वो आवाज रही थी और न वे नए कथावाचकों की तरह लच्छेदार अंदाज में कथा कह पाते थे। बगल में एक कथावाचक महोदय अपनी भोंडी आवाज में खूब ऊँची आवाज में कथा कह रहे थे, पर भाषा इतनी लच्छेदार थी कि जनता खिंची-खिंची जाती। वृद्ध बाबा के सामने एक लाला जी पधारे। पालगी करने के बाद पूछा, “का महराज! सूखे-सूखे बैठे हैं। कोई आया नहीं का?”
 
बाबा बोले, “नहीं लाला, जनता को अब नई आवाज अधिक लुभाती है, भले ही उसमें सत्व हो कि न हो।”
 
“तो आप इतना परेशान क्यों होते हैं? हम तो कब से कह रहे हैं कि कहाँ आप इस उमर में इतना श्रम करते हैं! अरे, इतने मौके पर जमीन है आपकी, कोई बाल-बच्चा तो हैं नहीं जो आगे कोई भोगे। तो इसे आप हमें बेच काहें नहीं देते। पूरे पचास रूपये देंगे। न हो तो एक्कावन ले लीजिए।” 
 
वृद्ध कुछ बोले नहीं तो लालाजी तांबें का एक सिक्का चढ़ाकर आगे बढ़ लिए। वृद्ध को अत्यधिक क्रोध आ गया था। तांबें को सिक्के को उठाकर दूर फेंक दिया और जाने किसे सुनाते हुए बोले, “चंद पैसे के लिए बाप-दादा की जमीन किसी बोपारी के बेंच दे। समझता क्या है? न सही आज का भोजन। दूर हो।”
 
थोड़ी दूर पर बालू पर बैठे तुलसी यह सब सुन रहे थे। उठकर बाबा के पास आए और पालगी करने के बाद बोले, “महात्मन, मैंने अभी तक की सारी बातें सुनी हैं। यदि अनुमति दे तो एक निवेदन करू?”
 
वृद्ध बाबा बोले, “तुम कौन हो पुत्र? कुछ जाने-चीन्हें से लगते हो।”
 
“मैं आपकी ही तरह राम जी की शरण में आ गया हूँ, नाम भी रामबोला है। कुछ दिनों से रोज सुबह यहीं आपके बगल में बैठता हूँ। कदाचित इसीलिए आपको मेरा चेहरा ध्यान में रहा होगा।”
 
“अच्छा-अच्छा, तो तुम कुछ कहना चाहते थे। बताओ क्या बात है?”
 
“देखता हूँ यहाँ कई कथावाचक हैं। आपको पिता और स्वयं को आपका पुत्र मान निवेदन करना चाहता हूँ कि हो सके तो मुझे आपके स्थान पर कथा कहने का अवसर दें। जो भी चढ़ावा चढ़े वो आपका। आपके लिए भोजन भी पका दिया करूँगा और उसमें से थोड़ा मैं भी खा लिया करूँगा।”
 
थोड़े अभिमान भरे स्वर में वृद्ध बोले, “कथा कहना इतना सरल नहीं है बेटा। क्या पहले भी कभी कथा कही है तुमने?”
 
“जी श्रीमान। गृहस्थाश्रम में मेरी जीविका का साधन कथावाचन और ज्योतिष ही था। यद्यपि ज्योतिष का भाग अधिक था।”
 
“तो पहले तुम मुझे कथा सुनाओ। संतुष्ट हुआ तो आगे देखी जाएगी”। इतना बोल बाबा ने अपना स्थान छोड़ दिया। तुलसी ने उन्हें सहारा देकर अपने स्थान पर बैठाया और स्वयं बाबा की चौकी पर बैठ गए। सामने बैठे बाबा के अंदर राम का ध्यान किया, गुरु को प्रणाम किया और बुलंद आवाज में बोल उठे,
 
“खेती न किसान को, भिखारी को न भीख ,बलि,
बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी।
जीविकाबिहीन लोग सीद्यमान सोचबस, 
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई , का करी?’,
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत, 
साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी। 
दारिद-दसानन दबाई दुनी , दीनबंधु ! 
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।।”
 
आस-पास के लोगों ने इतनी मधुर और प्रभावशाली आवाज सुनी तो एकबारगी चौंक उठे। वर्तमान की समस्याओं का इतना काव्यात्मक वर्णन और इतनी मार्मिक अरदास! लोग दूसरे कथावाचकों के पास से उठ-उठकर इस नए कथावाचक के पास बैठने लगे। यह कथावाचक आज की कठिनाइयों का वर्णन कर प्रभु श्रीराम से प्रार्थना कर रहा था कि ‘अब और कितनी देर करोगे प्रभु? आ जाओ और देखो अपनी प्रजा के कष्टों को। अब तुम्हारे अतिरिक्त और कोई सहारा नहीं बचा। अनाथों को सनाथ करो भगवन।’ जन समूह को उसने बताया कि यह नगरी तो स्वयं श्रीराम की जन्मस्थली है। यहाँ उस मर्यादा पुरुषोत्तम ने जन्म लिया जिसने संसार भर के दुष्ट प्राणियों का वध किया और विश्व को भयमुक्त बनाया।
 
तुलसी जब तक बोलते रहे, लोग तन्मय होकर सुनते रहे। जब कथा समाप्त हुई, उस समय तक इतना धन और अन्न चढ़ चुका था कि अंगोछे की सीमा पार कर बालू में फैल गया था। लोग जाते-जाते कहते जाते कि भगत जी, हम कल भी आएंगे। कृपया कल भी कथा सुनाइएगा। वृद्ध बाबा इतनी चढ़त देख गदगद थे। उन्होंने तुलसी के कंधे पर हाथ रख कहा, “तुम तो उत्तम कोटि के कथावाचक हो। जो तुम रोज ही ऐसी कथा सुनाओ तो इतनी चढ़त चढ़े कि मैं इस कोठी पर चारदिवारी बांध दूं। अभी तुम कहाँ ठहरे हो आयुष्यमान?”
 
“अभी तो बस्ती में सरजू ग्वाले के यहां रोटी सेंक लेता हूँ। संध्या को वह एक कटोरी दूध दे देता है।”
 
“तो तुम ऐसा करो कि यहीं रह जाओ। यही रहो, कथा सुनाओ। मेरे मन में यह संतोष तो रहेगा कि मेरे बाप-दादा के स्थान पर एक गुणी ब्राह्मण रहता है। मेरे पश्चात यह स्थान भी तुम्हारा ही होगा। कहो तो लिखा-पढ़ी भी कर दूँ।”
 
“अरे नहीं श्रीमान। इस तरह तो मैं जिससे भागकर आया उसी में वापस लिप्त हो जाउँगा। मैं अभी जैसा हूँ उसी में परम संतुष्ट हूँ। पर आपको पिता बोला है तो जब तक अयोध्या में हूँ, यहीं से कथावाचन करूँगा। चढ़त पर आपका ही अधिकार होगा। कभी-कभी यहाँ रुक भी जाऊँगा पर किसी संपत्ति पर मेरा कोई अधिकार नहीं होगा।”
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कुछ ही दिनों में तुलसी के नाम का ऐसा डंका बजा कि सरयू किनारे के कथावाचक ही नहीं, पूरे अयोध्या के बड़े-बड़े कथावाचकों, मंडलेश्वरों का सिंहासन डोल गया। होली के आने तक तो शहर का बच्चा-बच्चा तुलसी के नाम से परिचित हो चुका था। जिस दिन जानकी मंगल का अंतिम पाठ था, लगता था कि पूरी अयोध्या ही रामघाट पर जमा हो गई है। तुलसी ने कथा पूरी की और फिर हाथ जोड़कर सभी श्रोताओं को विदा किया। बस कुछ वृद्ध बैठे रह गए थे। लाला हिरदयमल गदगद स्वर में बोले, "भगत जी, राम जी की किरपा रही जो हम इतने बरस जी लिए। जो अगर पहले चले गए होते तो इतनी सुंदर कथा से और आपके दरसन से मरहूम रह जाते। बहुत पैसा कमाया पर इन कुछ दिनों में जो कमाया, उसके सामने तो पिछली कमाई कुछ भी नहीं।"
 
तुलसी पहले ही गदगद थे। इन बातों पर बस विनम्रता से हाथ जोड़ दिए। लाला जी बड़े विनीत होकर बोले, "महराज, जदी अनुमति दे तो एक प्रार्थना है। आप चारों राजकुमारों की शादी तो करा दिए। अब जो ज्योनार भी हो जाता तो बड़ा मंगल होता। फिर जाने कब ऐसी वाणी सुनने को मिले, कि न मिले! इसलिए हाथ जोड़ प्रार्थना है कि आप कथा को आगे बढ़ाइए।" वृद्ध कथावाचक ने भी लाला जी की हाँ में हाँ मिलाई। 
 
वृद्ध बाबा बोले, "मैं तो और आगे कहता हूं कि राम कथा पूरी की पूरी, आदि से लेकर अंत तक काहे नहीं रचते। सुना है कि बंगाली और द्राविड़ी में भी है रामायण!"
 
पीछे खड़े युवकों में से एक बोला, "हाँ बाबा, महात्मा कम्बन और कृत्विदास ने लिखी है द्राविड़ी और बंगभाषा में।"
 
"लो बताओ! बाहर वाले अपनी-अपनी भाषा में रामायण लिख गए और राम जी के घर की भाषा में ही रामायण नहीं है! बेटा तुलसी, तुममें भक्ति भी है और कवित्व की शक्ति भी। यह कार्य बस तुम ही कर सकते हो। भाषा में रामायण लिख तुम समाज पर बहुत किरपा करोगे। बोलो बेटा, ऐसा करोगे न?"
 
तुलसी ने एक क्षण को आँखें मूंदी और फिर बोले, "मैं अयोध्या आया ही इसीलिए था कि सीतामढ़ी में माता सीता ने अयोध्या जाने का आदेश दिया था और स्वयं वाल्मीकि जी ने कहा था कि मैं भाषा में रामायण लिखूं। मुझे आभास हो रहा था कि कुछ बहुत शुभ होने वाला है। मुझे स्वयं पर विश्वास नहीं था बाबा। आपने, लाला जी ने और इन युवकों तथा अन्य श्रोताओं ने मुझसे आत्मविश्वास पैदा किया है। मैं आप सभी का आभारी हूँ। राम जी ने चाहा तो मैं यह कार्य अवश्य करूँगा।"
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उस दिन तुलसी रामघाट पर ही रुक गए थे। भोर में जब आँख खुली तो उन्हें सामने जो दृश्य दिखा, उसे देख वे चमत्कृत हो उठे। नदी में डुबकी मारकर बाहर निकलता श्यामवर्णी, लंबा, ऊंचा, बलिष्ठ युवा शरीर। जल से भीगे लंबे केश, उनसे बूंद-बूंद टपकता पानी। उन्नत ललाट, गहरी और कृपालु नेत्र। भयमुक्त करने वाली मुस्कान। 'क्या यह स्वयं श्रीराम चले आ रहे हैं? क्या मेरे राम ने मुझपर अपनी कृपा की है? अहा, अहा, जन्म सफल हुआ प्रभु। इस अकिंचन पर, इस पापी पर आपने इतनी कृपा करी। बचपन की साध पूरी की मेरे नाथ, मैं कैसे अपनी कृतज्ञता प्रकट करूँ। हे दीनदयाला! हे कृपानिधाना! अपने रामबोला का प्रणाम स्वीकार करो प्रभु!'
 
वृद्ध बाबा कमरे से बाहर निकले तो क्या देखते है कि तुलसी नदी की ओर एकटक देखे जा रहे हैं। चेहरा ऐसा हो आया है जैसे कोई अनहोनी देख ली हो। बाबा घबरा गए और तुलसी को कंधों से पकड़ हिलाकर बोले, "बेटा! का हुआ? सब ठीक तो है न?" 
 
तुलसी के आंखों के सामने से राम जी चले गए। आंखों की पुतलियां फिरी और तुलसी संसार में वापस लौट आये। बाबा को देख प्रसन्न होकर बोले, "बाबा, मेरे राम ने मुझे आशीर्वाद दे दिया है। अब तो रामायण की रचना होकर रहेगी। रामनवमी कब है बाबा? मैं रामनवमी के शुभ दिन से इस पवित्र कार्य का आरम्भ करूँगा।"
 
"अहोभाग्य, अहोभाग्य। बोलो सियावर रामचन्न की जै! बेटा, जी हरियर कर दिया तुमने। मेरा पंचांग तो क्षत-विक्षत पड़ा है, नहीं अभी देखकर बताता रामनवमी का। चलो, बगल में जनेशर मिसिर के यहाँ से पता कर आते हैं।"
 
"आप बैठिए बाबा, मैं ही चला जाऊंगा।"
 
बाबा को वही छोड़ तुलसी पंचांग देखने गए। नवमी मंगल की दोपहर को लग रही थी। पर जनेशर मिसिर का कहना था कि नवमी सूर्योदय से मानी जायेगी, तो बुधवार को पड़ेगी। तुलसी प्रणाम कर चल दिये, और मन ही मन सोचते रहे कि जिसे जब मनाना हो, मनाए। हम तो अपने बजरंगी के दिन को ही नवमी मनाएंगे और उसी दिन से भाषा में रामायण लिखना प्रारम्भ करेंगे। 
 
नवमी जैसे-जैसे नजदीक आती गई, तुलसी के उत्साह में दिनोंदिन बढ़ोतरी होती गई। यद्धपि वे देख रहे थे कि आसपास बहुत अधिक तनाव फैल गया था। रामजन्मभूमि मंदिर को तोड़कर जो बाबरी मस्जिद बनी थी, वह रह-रह कर वीर लड़ाकों को कचोटती रहती थी। जाट, गुर्जर, ब्राह्मण, अहीर, क्षत्रिय, वाल्मीकि, भुइँहार, केवट जैसी वीर जातियां दूर-दूर से प्रतिवर्ष अयोध्या जी को कूच करती और प्रतिवर्ष नवमी को भयंकर रक्तपात होता। इस वर्ष भी ऐसी ही आशंका बनी हुई थी। पर तुलसी जाने क्यों यह सब देखकर भी यही कहते कि जो होगा, शुभ होगा। 
 
अष्टमी के दिन तुलसी बाजार निकले। मरघट का सन्नाटा फैला हुआ था। कुछ ही दुकानें लुके-छिपे ढंग से खुली हुई थी। तुलसी एक दुकान पर चढ़े और अभी कुछ बोले ही थे कि दुकान के नौकर को पीछे करते हुए लाला आगे आ गया और तुलसी की चरणरज लेकर बोला, "धन्यभाग, धन्यभाग। भगत जी स्वयं यहाँ हमारी दुकान पर आए। आदेश कीजिये महराज, क्या सेवा करूँ?"
 
चांदी का एक सिक्का लाला की हथेली पर रखते हुए तुलसी बोले, "एक मिट्टी की दवात और स्याही, एक सरकंडे की कलम, एक पटरी और बाकी जो पैसा बचे उसका कागज। कागज तनी मुलायम और चिकना, उच्च गुणवत्ता वाला दीजियेगा।"
 
"अभी महराज।" इतना बोल लाला खुद उठा और एक-एक कर तख्त पर सामान रखता गया। सब सामान रखकर हाथ जोड़ खड़ा हो गया। तुलसी ने देखा तो सामान में पीतल की दवात, दो बढ़िया कलम, कागज के नाप की दो पटरी, कागज दबाकर रखने के लिए पीतल के दो नक्काशीदार गुटके, ढेरों बढ़िया कागज और एक बस्ता। साथ में तुलसी का दिया चाँदी का सिक्का भी। तुलसी कुछ बोलते, उसके पहले ही लाला बोल पड़ा, "न महराज! कुछ मत कहिये। हम आते रहे कथा सुनने आपके यहाँ। और हम सुने हैं कि आप भाषा में रामायण लिख रहे हैं। अब हम इतना तो कर ही सकते हैं महराज। बहुत सामान बेचा, बहुत लाभ कमाया। पर खरा लाभ तो आज हुआ है। बस आप ये सब सामान ले जाइए। मैं अपने लड़के को रोज आपके पास भेजूंगा। जो भी कमी होगी, हाथ के हाथ पूरी हो जाएगी।"
 
तुलसी उसे आशीर्वाद देकर घर वापस आ गए। अगली सुबह नवमी थी। उनके अंदर काव्य तरंगें उमड़ी पड़ी थी पर उन्होंने उन्हें बलात रोक रखा था। चौकी बिछाकर, कागज-कलम सहेज कर दोपहर की प्रतीक्षा थी कि नवमी लगे और कलम चले। 
 
दोपहर होने के कुछ क्षण पहले डौंढ़ी पिटी, आवाज सुनाई दी, "खल्क खुदा का, मुल्क हिन्दोस्तान का, अमल शहंशाह जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर का.."। अकबर ने शहर में, और मस्जिद के अंदर भी एक छोटे से स्थान पर राम पूजा करने की अनुमति दे दी थी। शहर का सारा तनाव पल में हवा हो गया। दिशाएं श्रीराम के उद्घोष से गूंज उठी। तुलसी ने कलम उठाई और गुरु को प्रणाम कर कागज पर लिखना शुरू किया, 
 
"जब तें रामु ब्याहि घर आए। 
नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी। 
सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी॥
रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। 
उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
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