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अजब रंग भरती हैं सत्यार्थी जी की कहानियां,उनकी घुमक्कड़ी की दास्तानें!

सत्यार्थी जी की कहानियों में जगह-जगह उनकी आत्मकथात्मक छवियां बिखरी पड़ी हैं और उनकी घुमक्कड़ी की वे रोमांचक दास्तानें भी, जब वे लोकगीतों की तलाश में गांव-गांव और डगर-डगर पर चलते हुए इस महादेश की परिक्रमा कर रहे थे.

हिंदी के दिग्गज कथाकारों में लोकसाधक देवेंद्र सत्यार्थी का नाम अलग पहचान में आता है. इसलिए कि उन्होंने कहानी की बनी-बनाई राह पर चलने से इनकार करके, अपनी एक अलग लीक, अलग राह बनाई. सत्यार्थी जी की कहानियों में जगह-जगह उनकी आत्मकथात्मक छवियां बिखरी पड़ी हैं और उनकी घुमक्कड़ी की वे रोमांचक दास्तानें भी, जब वे लोकगीतों की तलाश में गांव-गांव और डगर-डगर पर चलते हुए इस महादेश की परिक्रमा कर रहे थे. जेब में चार पैसे तक नहीं और कहीं ठहरने का ठौर-ठिकाना भी नहीं. पर धुन बड़ी थी, जो उन्हें निरंतर आगे बढ़ाती जा रही थी. ऐसे में कभी किसी पेड़ के नीचे आश्रय लिया तो कभी किसी फुटपाथ पर सोए. धरती का बिछौना, आसमान की चादर. फिर उन्हें और चाहिए भी क्या था?

इस यात्रा में वे हजारों किसान-मजदूर और गांव की स्त्रियों से मिले और उनसे सुने लोकगीतों को कॉपियों में उतारा. कॉपियों पर कॉपियां भरती गईं और उनके पैर आगे बढ़ते गए. और ऐसा उन्होंने कोई दो-चार साल नहीं, बल्कि बरसोंबरस किया. बल्कि उनका पूरा जीवन ही एक खानाबदोश लोकयात्री का जीवन है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन लोक साहित्य को एक नई गरिमा और महनीयता प्रदान करने में लगाया. उनके कारण हर भाषा, हर जनपद में एक नई जागृति आई और देश के अलग-अलग भागों में सैकड़ों लोग लोक साहित्य की तलाश में निकले. यों देश में लोक जागृति का एक बड़ा आंदोलन ही खड़ा हो गया, जिसके नायक देवेंद्र सत्यार्थी थे.

इसमें संदेह नहीं कि सत्यार्थी जी की अथक लोक यात्राओं में हासिल हुए अनुभवों की अकूत संपदा ने ही उन्हें कहानीकार बनाया. पूरे बीस बरस तक लोकगीतों की तलाश में गांव-गांव भटककर हिंदुस्तान के चप्पे-चप्पे की धूल छान लेने वाले सत्यार्थी यहीं रुके नहीं. उन्होंने लोक साहित्य की ऊर्जा और आत्मा को साहित्य के सर्जनात्मक रूपों में ढालने की एक नई मुहिम शुरू की. लोक साहित्य पर लिखे गए उनके लेखों में तो सर्जनात्मक भाषा का रूप, लोक संवेदना की कसक, पीड़ा और एक अछूता रस-माधुर्य था ही. बाद में चलकर उन्होंने कहानी, रेखाचित्र, संस्मरण, उपन्यास, कविता सभी में हाथ आजमाया और खासकर उनके कथा-साहित्य की खासी धूम रही.

उस जमाने में उर्दू में मंटो, बेदी, कृश्न चंदर और इस्मत चुगताई के साथ सत्यार्थी जी की कहानियां खूब धज से छपती थीं और जोरों से उनकी चर्चा होती थी. बगैर सत्यार्थी जी की कहानियों के उस दौर की कहानियों की ऊर्जा, शक्ति और संवेदना को जाना ही नहीं जा सकता और न कहानी के इतिहास की चर्चा की जा सकती है. सत्यार्थी जी उस समय सुर्खियों में थे और कहानी की बड़ी से बड़ी पत्रिका उनकी कहानियों को पाकर धन्य होती थी. उर्दू की 'हुमायूँ' और 'अदबेलतीफ' समेत अनेक नामी पत्रिकाओं के साथ-साथ हिंदी की 'हंस', 'कल्पना' और 'कहानी' सरीखी पत्रिकाओं में सत्यार्थी जी की बहुत कहानियां छपीं.

यह दीगर बात है कि सत्यार्थी जी के लिए इसके कुछ खास मानी न थे. न प्रसिद्धि की लालसा उनके मन में कभी थी और न उन्होंने उसे कभी महत्त्व दिया. लोकगीतों की खोज हो या कहानियां, उपन्यास वगैरह, वगैरह- यह सब सत्यार्थी जी की दीवानगी और आवेगभरी यात्राओं की उपलब्धि थी. इसलिए सत्यार्थी जी के लोक-संग्राहक रूप और सर्जक रूप के बीच हम चाहे दीवारें कितनी ही खींच लें, सत्यार्थी जी के लिए वे एक ही हैं. अपने व्यक्तित्व पर किसी खास रंग-ढंग का लेबल लगाना उन्हें कभी पसंद नहीं रहा. उनका जीवन तो कबीर की फक्कड़ी और सधुक्कड़ी की तरह था और मंत्र था, 'चरैवेति चरैवेति...!' इस लिहाज से वे बीसवीं सदी के हिंदी जगत के अनोखे घुमंतू साहित्यकार थे, जिनकी किसी से तुलना हो ही नहीं सकती!

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आखिर देवेंद्र सत्यार्थी ने लोक साहित्य के मर्मज्ञ और व्याख्याता के रूप में चतुर्दिक ख्याति पा लेने के बाद कहानियां लिखने का फैसला क्यों किया? एक बार पूछने पर उन्होंने बताया था कि वे उन दिनों राजेंद्रसिंह बेदी के पास ठहरे थे जो तरक्कीपसंद कहानीकार के रूप में मशहूर हो चुके थे और सत्यार्थी जी को उनकी कहानियां बेहद प्रिय थी. लोकयात्री सत्यार्थी लाहौर में उनके साथ रोजाना घूमने जाया करते थे और रास्ते में अपनी यात्राओं के अजीबोगरीब अनुभव और संस्मरण सुनाया करते थे. वे जब भी कोई घटना सुनाते, बेदी झट कह उठते, "अरे, यह तो कहानी हो गई!"
बस, इसी बात ने उन्हें उत्प्रेरित किया और वे कहानी लिखने बैठ गए. राजेंद्रसिंह बेदी उम्र में उनसे छोटे थे, पर सत्यार्थी जी ने उन्हें अपना कथागुरु मान लिया तो जीवन भर गर्व से कहते रहे, "राजेंद्रसिंह बेदी कहानी में मेरे गुरु हैं."

यों सत्यार्थी जी ने कहानियां लिखी नहीं, समय ने उन्हें खुद-ब-खुद कहानीकार बनाया. सत्यार्थी जी की कहानियों में जीवन की घुमक्कड़ी के इतने बीहड़, कठोर और दुस्साहसी अनुभव हैं कि वे जल्दी ही जीवन के खुले विस्तार और ऊष्मा से सराबोर कहानीकार के रूप में पहचाने जाने लगे. उनकी कहानियों में लोकगीतों का आस्वाद और रस-माधुर्य ही नहीं, फसलों की लहलहाती गंध, खेतों की मिट्टी की खुशबू, गरीब किसान-मजदूरों के लहू और पसीने की गंध, शोषण की आकुल पुकारें तथा दुख और पीड़ाओं का सैलाब भी है. वाल्ट व्हिट्मैन की तरह वे जनता के अनंत सुख-दु:ख को बांहों में बांधे, उसके साथ-साथ हंसते-रोते और गाते हैं. सत्यार्थी जी के पास दुस्साहसी अनुभवों का जो अकूत खजाना था और उनके स्वभाव में जो गरमजोशी और खुलापन था, वह रह-रहकर उनकी कहानियों में छलकता. और एक बार उन्होंने कहानी की दुनिया में पैर रखा तो वे सरपट इस ओर भागते ही चले गए. देखते ही देखते वे अपने समकालीन कहानीकारों की प्रथम पंक्ति में आ गए.

फिर जब उन्हें लगा कि कहानियों में उनके अनुभव पूरी तरह नहीं समा पा रहे हैं, तो उन्होंने उपन्यास लिखे. उनके 'ब्रह्मपुत्र', 'रथ के पहिए', 'कथा कहो उर्वशी', 'दूध-गाछ', 'कठपुतली', 'घोड़ा बादशाह', 'सूई बाजार' आदि उपन्यास आज भी आंचलिकता की भीनी सुवास और अछूते अनुभवों की ताजगी के कारण अलग से पहचान में आते हैं.

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लेकिन लगता है, सत्यार्थी जी ने जब लोकगीत-संग्रह करते-करते और इसमें अपने जीवन के करीब-करीब बीस कीमती वर्ष लगा देने के बाद अचानक कहानियां लिखने का फैसला किया तो शुरू-शुरू में उन्हें व्यंग्य और उपेक्षा भी खूब सहनी पड़ी. उन लोगों की व्यंग्यभरी नजरें उनका लगातार उपहास कर रही थीं, जो उन्हें एक खास रूप में देखने के आदी हो चुके थे. सत्यार्थी जी ने अपने पहले कहानी-संग्रह 'चटटान से पूछ लो' के आमुख में इस पीड़ा का बयान किया है-

"सन् 1940 के अंतिम दिनों की बात है. मुझे एकाएक कहानियां लिखने की बात सूझ गई. एक मित्र ने बड़े व्यंग्य से कहा- तुम तो रात भर में कहानी-लेखक बन गए. अनेक मित्रों ने बड़ी आशंका प्रकट की. उनके मतानुसार यह मेरी भूल थी और मुझे लोकगीत के पथ से भटकना नहीं चाहिए था. मैं उनके उपदेश सुनता और हंस देता. एक ने तो यहां तक कह दिया- कहानी तुम्हारे बस का रोग नहीं! क्यों बेकार समय गंवाते हो?"
'कुंगपोश' सत्यार्थी जी की पहली महत्त्वपूर्ण और बहुचर्चित कहानी थी, जो 'चट्टान से पूछ लो' में संगृहीत है. हवा में उड़ते पराग कणों की तरह इस कहानी की स्वच्छंद लय ने पाठकों को बेहद प्रभावित किया तो साथ ही सत्यार्थी जी को भी अपने ढंग के एक निराले कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया. इसमें कश्मीर के केसर के खेतों और वहां के अछूते यौवन की सुंदरता और मादकता का गहरा रंग है. साथ ही कहानी में धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की प्राकृतिक सुषमा और लावण्य का ऐसा चित्ताकर्षक रूप है, जो पाठकों को रसमग्न कर देता है. कहना न होगा कि भारतीय कथा साहित्य में कश्मीर की नैसर्गिक सुंदरता का चित्रण करने वाली ऐसी अद्भुत कहानी शायद ही कोई और हो.

हालांकि सत्यार्थी जी ने यह कहानी अपने एक मित्र को सुनाई तो उसका कहना था, "तुम कहानियां लिखो...पर तुम्हें सदैव एक लोकगीत-संग्रहकर्ता के रूप में याद किया जाएगा, कहानी-लेखक के रूप में नहीं." हारकर उन्होंने अपने मित्र से बहस करना छोड़कर, अपनी वेदना सीधे-सादे निभ्रांत शब्दों में कही-

"हवा के कंधों पर जैसे धूल के कण उड़ते फिरते हैं, ऐसे ही मैंने जिन व्यक्तियों को बहुत समीप से देखा, वे मेरी कल्पना को छू-छू जाते हैं. उन्हें मैं भुला तो सकता नहीं और यदि मैं कहानियों में उनके चित्र प्रस्तुत करते हुए अपने हृदय और मस्तिष्क को हल्का न करूं, तो मैं लोकगीत संबंधी अपने कार्य में भी पूरी रुचि से नहीं जुटा रह सकता."

ये सचमुच सीधे हृदय से निकली मार्मिक पंक्तियां हैं, जिसके पीछे का निश्छल गहरा व्यक्तित्व और तकलीफ साफ दिखाई देती है. सत्यार्थी जी की कहानियों के पीछे की पृष्ठभूमि ही नहीं, उसके पीछे जीवनानुभवों का जो गहरा दबाव है, वह भी समझ में आता है.

'चट्टान से पूछ लो' की कहानियों में कई रंग हैं. अगर 'कुंगपोश' में एक कश्मीरी युवती की वेदना के साथ-साथ लोकगीतों की सी मीठी सरसता है, तो 'काँगड़ी' में कश्मीर की आजादी की लड़ाई का बेहद प्रामाणिक चित्रण है. 'अमन का एक दिन' में विश्व-युद्धों के खतरे की विभीषिका है. संग्रह की दो सबसे महत्त्वपूर्ण कहानियां हैं 'जन्मभूमि' और 'कबरों के बीचोबीच', जिनकी उन दिनों खूब चर्चा हुई और हिंदी कथा-साहित्य के इतिहास में उनकी एक खास जगह है. 'जन्मभूमि' देश-विभाजन की रक्तरंजित त्रासदी से उपजी एक मार्मिक कहानी है, जिसकी करुणा आज भी हमें भीषण दंगों और रक्तपात में मारे गए हजारों बेगुनाहों की याद के साथ थरथरा देती है. देश-विभाजन की पृष्ठभूमि पर इतने गहरे तौर से विचलित कर देने वाली कहानियां कम ही लिखी गईं. अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों ने सत्यार्थी जी की इस कालजयी कहानी की करुणा में भीगकर बड़े सम्मान से इसकी चर्चा की है. उस दौर की शाहकार कहानियों में इसकी गिनती होती है.

'जन्मभूमि' को पढ़कर पता चलता है कि पंजाब के लोगों के लिए देश-विभाजन की यह अनकही पीड़ा कितनी करुण, कितनी दुस्सह और मर्मांतक थी और देखते ही देखते बहुत कुछ उजाड़ हो गया था. उन उजड़े हुए परिवारों का दुख असहनीय है. सत्यार्थी जी ने इस कहानी में पाकिस्तान से शरणार्थियों को लेकर भारत आती रेलगाड़ी का दिल को थरथरा देने वाला वर्णन किया है. गाड़ी में बैठे हर शख्स के मन में बलवाइयों का डर है, जो रास्ते में कुछ भी कर सकते हैं. गाड़ी बीच-बीच में घंटों रुकी रहती है और इसके साथ ही यात्रियों की सांसें भी. लोग आलू की बोरियों की तरह गाड़ी में ठुंसे हैं और गरमी के मारे सबका बुरा हाल है. पानी का एक गिलास पचास रुपए में मिल रहा है और मजबूरी में होंठ गीले करने के लिए वही खऱीदना पड़ रहा है. ऐसे में बीमार पत्नी और तीन मासूम बच्चों के साथ रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे एक गरीब स्कूल मास्टर की मनःस्थिति क्या है, यह इन पंक्तियों से पता चल सकती है-

"कंधों पर पड़ी हुई फटी-पुरानी चादर को वह बार-बार संभालता था. इसे वह अपनी जन्मभूमि से बचाकर लाया था. बलवाइयों के अचानक गांव में आ जाने के कारण वह कुछ भी तो नहीं निकाल सका था. बड़ी कठिनाई से वह अपनी बीमार पत्नी और बच्चों के साथ भाग निकला था. अब इस चादर पर उंगलियां घुमाते हुए उसे गांव का जीवन याद आने लगा. एक-एक घटना मानो एक-एक तार थी, और इन्हीं तारों की सहायता से समय के जुलाहे ने जीवन की चादर बुन डाली थी. इसी चादर पर उंगलियां घुमाते हुए उसे मानो उस मिट्टी की सुगंध आने लगी, जिसे वह वर्षों से सूंघता आया था. जैसे किसी ने उसे जन्मभूमि की कोख से जबरदस्ती उखाड़कर इतनी दूर फेंक दिया....अब यह जन्मभूमि नहीं रह गई. देश का बंटवारा हो गया. अच्छा चाहे बुरा. जो होना था, सो हो गया. अब देश के बंटवारे को झुठलाना सहज नहीं. पर क्या जीवन का बंटवारा भी हो गया?"

सच पूछिए तो सत्यार्थी जी की कहानी 'जन्मभूमि' एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह है, जिसे बार-बार पढ़ने की जरूरत है. लगता है, यह कहानी सत्यार्थी जी ने लिखी नहीं, बल्कि इतिहास-पुरुष ने ही मानो एक करुण जीवन-लीला का साक्षी बनाकर उनसे लिखला ली हो. ताकि आने वाली पीढ़ियां, जान सकें कि गुजरे इतिहास में कैसी अनगिन पीड़ाएं और त्रासदियां छिपी हैं, जिन्होंने मानवता को एक गहरे इम्तिहान के दौर से गुजरने को विवश किया. बहुत कुछ तबाह हुआ, पर उसी पर नई आशा और उम्मीदों से भरे एक नए सृजन की नींव भी रखी गई.

इस संग्रह की दूसरी यादगार कहानी बंगाल के अकाल पर लिखी गई एक मार्मिक कहानी 'कबरों के बीचोंबीच' है जिसमें भूख से मरते हुए लोगों की बेपनाह तकलीफों के बीच नकली सिद्धांतों और आंकड़ों का हिसाब-किताब बिठा रहे बुद्धिजीवियों के दोहरे-तिहरेपन पर चुभीला व्यंग्य है. कहानी के अंत में झुर्रीदार चेहरे वाली कंकाल-प्राय: बुढ़िया की उपस्थिति- जो खुद मौत के क्रूर व्यंग्य-जैसी है, पूरी कहानी को एक जबरदस्त ट्रेजडी में बदल देती है, जिसे भुला पाना असंभव है.

'जन्मभूमि' की करुणा अगर दूर तक विचलित करती है तो 'कबरों के बीचोंबीच' का व्यंग्य सचमुच काटता चला जाता है. ये दोनों ही सही मायने में सत्यार्थी जी की 'कालजयी' कहानियां हैं.

इससे इतना तो पता चलता है कि सत्यार्थी जी की कहानियां शुरू से ही किसी सीधी-सपाट सड़क पर चलती कहानियां नहीं रहीं. खुद सत्यार्थी जी इस बात को जानते हैं और जब वे कहानी की दुनिया में आए तो सीधे-सपाट रास्तों पर चलने के लिए नहीं, नई चुनौतियां स्वीकार करने के लिए आए. उनके पास इसका अपना दमदार तर्क भी है-

"कहानी की नपी-तुली सीधी सड़क पर चलते रहना आधुनिक कहानी-लेखक को कहीं भी प्रिय नहीं रहा. कलाकार के रूप में कहानी-लेखक को भी अपनी कला में नए प्रयोग प्रस्तुत करने का दायित्व निभाना होता है. इसके बिना वह कहानी-कला की प्रगति के साथ न्याय नहीं कर पाता."
इसके बाद के संग्रहों में 'चाय का रंग', 'सड़क नहीं, बंदूक' और 'नए धान से पहले' में सत्यार्थी जी कहानियां ज्यादा खुलकर और दुस्साहसी ढंग से अपनी बात कहती नजर आती हैं. यथार्थ के न सिर्फ नए-नए स्तर, बल्कि बात कहने की नई-नई शैलियां और भाषा की बारीक अर्थ-छवियां भी यहां नजर आती हैं. 'चाय का रंग' में 'इकन्नी' जैसी छोटी और मार्मिक कथा में निजी जीवन का कोई पृष्ठ उघड़ पड़ा है तो 'चाय का रंग' जैसी सत्यार्थी जी की लंबी महत्वाकांक्षी कहानी भी है. 'अन्न देवता' में लोकतत्त्व को प्रतीक के अर्थ में एक नई अर्थभूमि दी गई है तो 'ब्रह्मचारी' में एंद्रिय अनुभवों की मांसलता है जो सौंदर्य के बड़े बारीक आवरण में झाँकती है.

इनमें 'इकन्नी' बेहद मर्मस्पशी कहानी है, जिसमें सत्यार्थी जी के यायावर जीवन का दर्द बहा चला आता है. 'इकन्नी' कहानी तो है ही, पर साथ ही सत्यार्थी जी की आत्मकथा का एक करुण वेदना भरा पन्ना भी है, जो पाठकों के दिलों को झिंझोड़ देता है. यों कहानी का घटना-चक्र संक्षिप्त ही है. हुआ यह कि बनारसीदस चतुर्वेदी ने सत्यार्थी जी को कुंडेश्वर आमंत्रित किया, जहां वे लोक साहित्य की एक प्रसिद्ध पत्रिका निकालते थे. पर सत्यार्थी जी तो एकदम फटेहाल थे, जिनके पास यात्रा के लिए किराए के पैसे भी न थे. उन्होंने अपने मित्र से कुछ पैसे उधार लिए और यात्रा पर रवाना हो गए. इस बीच उन्हें पता चला कि रेल का किराया बढ़ गया है. पर अब वे क्या करें? उनके पास तो अतिरिक्त पैसे थे ही नहीं. इस हालत में कितनी विचित्र स्थितियों से गुजरते हुए वे कुंडेश्वर पहुंचे, कहानी में इसका बड़ा मार्मिक वर्णन है.

अंत में किसी तरह एक इकन्नी उनके पास बच रहती है. यह इकन्नी उन्होंने अपने फटे जूते की मरम्मत करने वाले मोची के मेहनताने के रूप में उसकी हथेली पर रखी, तो काम के बदले पूरी एक इकन्नी पाकर उसे जैसे अपनी आंखों पर यकीन ही न हो पा रहा हो. एक क्षण के लिए वह सत्यार्थी जी की ओर देखता रह गया. तब सत्यार्थी जी के मन में उस इकन्नी के साथ जुड़ी पूरी एक विडंबना भरी कहानी तैर जाती है. उस समय तक सत्यार्थी जी एक लेखक के रूप में खासे प्रसिद्ध हो चुके थे. पूरे देश में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता था. पर इस मशहूरी के बावजूद जैसी कठिन स्थितियों में उन्हें जीना पड़ रहा था, उसे पढ़कर एक लेखक की विडंबना की जो तसवीर सामने आती है, उससे पाठकों की आँखें भर आती हैं.
इसी तरह 'ऑटोग्राफ बुक', 'टिकुली खो गई', 'नए देवता', 'लीलारूप' उस दौर के हिसाब से बहुत आगे की, यानी नए रंग-ढंग की कलात्मक कहानियां हैं. इनमें 'नए देवता' और 'लीलारूप' की चर्चा उस दौर में इसलिए भी काफी हुई कि 'नए देवता' मंटो पर लिखी गई एक तेज कहानी है और 'लीलारूप' के पीछे से अज्ञेय के आभिजात्य की लीला रह-रहकर झांकती है.

ये दोनों ही कहानियां काफी खतरा उठाकर लिखी गई 'असुविधाजनक' कहानियां हैं. इसका सबूत यह है कि 'नए देवता' पढ़कर मंटो कई साल तक सत्यार्थी से नाराज रहा था. और फिर उसकी शर्त के मुताबिक एक होटल में दावत देकर उसे मनाया जा सका. अज्ञेय भी 'लीलारूप' पढ़कर नाराज तो हुए, लेकिन उनकी नाराजगी इतने उग्र या प्रचंड रूप में सामने नहीं आई. उन्होंने उसे एक शालीन आभिजात्य में ढक लिया, लेकिन वर्षों तक अज्ञेय और सत्यार्थी जी के संबंध असहज रहे. काफी बाद में जाकर बात साफ हुई. तब अज्ञेय जी को समझ में आया कि उन्हें लेकर सत्यार्थी जी के मन में कोई पूर्वाग्रह नहीं है, बल्कि एक तरह का स्नेह भाव और आदर ही है. पर कहानी लिखते समय कथाकार को किसी स्थिति को कथात्मक पूर्णता तक ले जाने के लिए एक अलग जामा पहनाना होता है. यह उसकी कलात्मक विवशता है, पूर्वाग्रह नहीं.

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'चाय का रंग' में सत्यार्थी जी की सर्वाधिक चर्चित कहानियां हैं. उसके बाद 'सड़क नहीं, बंदूक' और 'नए धान से पहले' संग्रह सामने आए. सत्यार्थी जी की कहानियों की धारा में अब एक स्पष्ट बदलाव नजर आता है. 'सड़क नहीं, बंदूक' में शीर्षक कहानी के अलावा 'पिकनिक', 'एक फोटो की कहानी', 'फत्तू भूखा है', 'मिस बिलिमोरिया' और 'जोड़ा साँको' की उस दौर में खासी चर्चा हुई थी. 'नए धान से पहले' संग्रह की कहानियों में 'नए धान से पहले', 'एक घोड़ा एक कोचवान', 'सतलज फिर बिफरा', 'अर्चना के पापा जी' और 'सोनागाची' सत्यार्थी जी की यादगार कहानियां हैं. और मजे की बात यह है कि ये सभी कहानियां बहुत नपी-तुली भाषा में अपनी बात कहने वाली कटी-सँवरी कहानियां नहीं हैं. बल्कि जीवन के सहज आवेश से भरकर ये बार-बार कहानी के बने-बनाए फ्रेमों को तोड़कर बाहर निकल आती हैं. ये इतनी सच्ची, आत्मीय और गहरी जिजीविषा से भरी कहानियां हैं कि हर बार हमें लाचार होकर कहानी की अपनी तंग परिभाषा को थोड़ा और ढील देनी पड़ती है.

निश्चित रूप से सत्यार्थी जी की ये कहानियां एक बड़े परिवर्तन की वाहक हैं. लिहाजा ये एक साथ प्रयोगात्मक कहानियां हैं और यथार्थवादी भी, जिनके लिए उन्हें एक अलग भाषा और शिल्प ईजाद करना पड़ा. सत्यार्थी जी की पिछली कहानियों से तो ये अलग हैं ही, उस दौर में लिखी जा रही अन्य कहानियों से भी अलग अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं. खुद सत्यार्थी ने 'सड़क नहीं, बंदूक' की भूमिका में इस बात को खूबसूरती से प्रकट किया है-
"कुछ कहानी-लेखक आज भी सुंदर शब्दों और रोमान के रेशमी तारों के बलबूते पर ही कहानी का ताना-बाना प्रस्तुत करते हैं. पर जब रोमान का परदा चाक करते हुए कहानी-लेखक जीवन के विस्तृत क्षेत्र में उतरता है तो उसे शब्दों की कमी बुरी तरह अखरती है. शब्दों की ताजगी, शक्ति और पुकार से परिचित होने के लिए उसे हमेशा अपने कान खुले रखने होंगे. शब्दों की आवाजों के संतुलन द्वारा इनके रंगों से बहुत बड़ा काम लिया जा सकता है- यदि यह बात नहीं तो वातावरण का चित्रण भी अधूरा ही रहता है."

इससे इतना तो जरूर पता चलता है कि सत्यार्थी जी की कहानियों में भले ही उनके मनमौजी व्यक्तित्व की छाया है, पर कहानी लेखक के रूप में वे बेहद सजग हैं ताकि कहानी का जो बिंब और अंतःभावना उनके मन में है, वह ठीक-ठीक शब्दों में उतर सके. यही कारण है कि सत्यार्थी जी की कहानियां सीधे पाठकों के दिलों में उतरती हैं और उन्हें बेहद आंदोलित करती हैं. कहानी पढ़ने के बाद आप वही नहीं रह जाते, जो पहले थे. सीधे-सीधे जिंदगी की तकलीफों से जुड़ी सत्यार्थी जी की ये भावनात्मक और संवेदनवाही कहानियां पाठकों को अपने साथ बहा ले जाती हैं और उनके दिलों में सही और गलत को लेकर एक युद्ध छेड़ देती हैं. पाठक इससे प्रभावित न हो, यह हो ही नहीं सकता.
यह अकारण नहीं कि सत्यार्थी जी के पाठक बरसों पहले पढ़ी गई उऩकी कहानियों को फिर-फिर याद करते, और उऩ्हें एक बार फिर पढ़ने की ललक के साथ खोजते और इसरार करते नजर आते हैं. किसी कहानीकार की इससे बड़ी सफलता शायद कुछ और नहीं हो सकती.

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इससे यह बात भी समझ में आए बगैर नहीं रहती कि क्यों सत्यार्थी जी की तमाम कहानियां बार-बार रेखाचित्र और संस्मरण की हदों को छूने लगती हैं. सत्यार्थी जी अकसर अपने निजी जीवन की किसी करुण घटना या फिर निकट से देखी गई सच्ची घटनाओं पर कहानियां लिखते हैं. यह बात भी उन्हें दूसरे कहानीकारों से अलगाती है. इससे उनकी कहानियों में अनुभव की ताजगी और सहज विश्वसनीयता तो आती है, साथ ही उन्हें पढ़ना एक सच्ची जीवन कथा को पढ़ने सरीखा भी लगता है. कई बार उनके यहां कहानी और आत्मकथा एक हो जाती है तो कई जगहों पर कहानी और संस्मरण भी घुल-मिलकर एक नई और अद्भुत रचना में ढल जाते हैं, जिसका आस्वाद पाने के लिए हमें बार-बार सत्यार्थी जी और उनके कथा-संसार के निकट आना पड़ता है.

सत्यार्थी जी की इन आत्मपरक कहानियों को पढ़ते हुए लगता है, जैसे बरसों पहले घटित हुए किसी प्रसंग को हम हू-ब-हू फिर से अपनी आँखों के आगे घटित होते देख रहे हों. पर कई बार वे कहानियां बनते-बनते रह गई कहानियां भी लगती हैं. उनके कैनवास कई बार बेडौल और अनियंत्रित भी हो जाते हैं और उनमें बहुत कुछ इधर-उधर का भी समाता चला जाता है, जो कहानी की मुख्य संवेदना से सीधे-सीधे नहीं भी जुड़ता.

यों सत्यार्थी जी की इस ढंग की जो सफल कहानियां हैं, उनमें अजब-सी धार और मारक व्यंग्य भी उभर आया है. जो यथार्थ से सीधे-सीधे दो-चार होने वाले आदमी को ही हासिल हो पाता है. मसलन 'जोड़ा साँको' गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के निधन पर लिखी गई विलक्षण कहानी है. और खास बात इस कहानी के पीछे की आंख या विजन है. कहानी बड़ी बारीकी से इस ओर इशारा करती है कि जहां रवींद्र साहित्य के मुट्ठी भर अधिकारी विद्वान विश्व साहित्य में उनके स्थान को लेकर बंद कमरे में माथापच्ची करते रह जाते हैं, वहां अनपढ़ और नासमझ समझी जाने वाली भीड़ का सैलाब हजार हाथों से बढ़ता है और देखते ही देखते जनता के कंधों पर उनकी अर्थी फूल की तरह तिरती चली जाती है. लहरों पर कमल की तरह तिरती अर्थी का यह बिंब सचमुच कमाल का है. इसी तरह 'एक फोटो की कहानी' में सत्यार्थी जी के घुमक्कड़ जीवन का एक रोमांचक अनुभव है.

'फत्तू भूखा है' में जिस फत्तू की कहानी कही गई है, उसे सत्यार्थी जी बचपन से ही अपने घर में देखते आए थे. 'फत्तू भूखा है' बड़ी अद्भुत कहानी है. एक तरह की आत्मकथात्मक कहानी. फत्तू उनके घर भैंसों को चराने वाला युवक है. एक अनाथ लड़के की तरह वह इस घर में आया और फिर हमेशा के लिए यहीं का होकर रह गया. भैंसों की वह इतने मन और लगन से सेवा-टहल करता है कि उनका दूध दूना हो गया. पर बदले में पैसे या तनख्वाह लेना उसे मंजूर नहीं. आखिर वह इस घर का ही तो प्राणी है. यों फत्तू चरवाहा है, मगर घर में उसका स्थान बेटे की तरह है और वह भी इसी घर को अपना घर मानकर रह रहा है. फत्तू का दिल कितना ब़ड़ा है और उसकी भावनाएँ कितनी ऊंची हैं, कहानी में इसका बड़ा कमाल का चित्रण है-
"हर साल फत्तू ईद के अवसर पर सवेरे-सवेरे अपनी भैंसों को नहलाता है और फिर एक-एक के कान में कहता जाता है- कल ईद है! और रात को नहर के किनारे वह अपने साथ उन्हें भी ईद का चांद दिखाकर खुशी से झूम-झूम उठता है. और फिर कार्तिक की पूर्णमासी पर वह उन्हें मेला दिखाने ले जाता है. कहता है- इन्हें भी तो मालूम होना चाहिए कि आज बाबा नानक का जन्मदिन है."

पर एक दिन जब उसकी प्यारी भैंस रेशमा बिकने लगी, तो उसने घर में भूख हड़ताल कर दी. उसे सबने मनाने की कोशिश की, पर वह नहीं माना. यहां तक कि उसकी प्यारी भैंस रेशमा ने भी उसे मनाने में कोई कोर-कसर नहीं रखी-

"रेशमा ने अपनी थूथनी फत्तू की खाट पर रख दी और अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से उसकी ओर देख रही है. जैसे कह रही हो- हां, हां, फत्तू, पहले कुछ खा लो. चाची की बात रख लो, कब तक भूखे रहोगे? अपनी भूख की तो मुझे कुछ चिंता नहीं. तुम जरूर मेरे दूध की खीर बनवा लो अपने लिए."

तब उसे वचन दिया गया कि रेशमा नहीं बिकेगी. पर आखिर जो कुछ हुआ, उसने फत्तू को भीतर-बाहर से तोड़ दिया. और सिर्फ फत्तू ही नहीं, कहानी का पाठक भी अंत तक आते-आते एकदम स्तब्ध सा रह जाता है.

अपनी आत्मकथा 'चाँद-सूरज के बीरन' में भी सत्यार्थी जी ने फत्तू का अच्छा चित्रण किया है. कहानी लिखते समय वे फत्तू का नाम बदलने तक की जरूरत नहीं महसूस करते. शायद इसलिए सत्यार्थी जी की कहानियां धरती और जिंदगी की कहानियां है जिनमें बनावट बिल्कुल नहीं हैं. उनसे गुजरते हुए भूख, गरीबी शोषण और मजदूर-किसानों के दुख-दर्द की गूँजें जगह-जगह सुनी जा सकती हैं. वे इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते हैं कि भूखे आदमी के लिए बुद्धि और कला की बारीकियां और 'फाइनर इंस्टिंक्ट्स' का कुछ मतलब नहीं है. लाखों-करोड़ों अगर भूख की चक्की में पिस रहे हों तो उनसे बेपरवाह होना शर्म की हद तक घटिया है.

इसी तरह बंगाल के भयंकर अकाल और देश-विभाजन तथा सांप्रदायिकता की आँधियों के बहुत विचलित कर देने वाले गहरे अक्स सत्यार्थी जी की कहानियों में नजर आते हैं.

इसके बाद की सत्यार्थी जी की कहानियों में जो 'नीलयक्षिणी', 'मिस फोकलोर' तथा 'हैलो गुडमैन दि लालटेन' में शामिल हैं, एक परिवर्तन साफ तौर से नजर आता है. वहां कथा-तत्त्व लगातार झीना होता जाता है और भाषा में बौद्धिक गहराई और एक उस्तादाना टच आने लगता है. कथा-तत्त्व के विखंडन के बावजूद उनकी चमक और अहसास की कौंध कहीं कम नहीं होती. फिर भी एक बात तय है कि इनमें पहले जैसा जीवन का सहज आवेश और गरमजोशी नहीं है. सत्यार्थी जी के तमाम पाठकों को इससे धक्का भी लगा. "सत्यार्थी अब काफी हाउस का कथाकार बन गया है!" जैसी व्यंग्योक्तियों का भी उन्हें सामना करना पड़ा. लेकिन सत्यार्थी जी ने पीछे मुड़कर देखना पसंद नहीं किया. उनका जवाब था, "मैं खुद को दोहराता नहीं रह सकता. मुझे नए अनुभवों के साथ चलना है."

सत्यार्थी जी की बाद की कहानियां दरअसल मोहभंग की कहानियां हैं और उनमें उनके निराश और टूटे हुए मन की अभिव्यक्तियां हैं. खासकर जवाब बेटी कविता के निधन के बाद तो सत्यार्थी जी बुरी तरह टूटे. उनके भीतर यह अपराध-बोध घर कर गया कि उनकी लोकयात्राओं और घुमक्कड़ी ने ही उनकी बेटी की बलि ले ली. और जिस तरह निराला अपनी कविताओं से बेटी का तर्पण करते हैं, करीब-करीब उसी अंदाज में सत्यार्थी जी ने अपनी बेटी कविता को याद करते हुए, बहुत उदास, भरे हुए दिल से तमाम कहानियां लिखीं. इनमें कुछ तो सचमुच लाजवाब हैं. हताश और टूटे हुए सत्यार्थी जी की तब की मन:स्थिति इन कहानियों में पूरी तरह खुलती है.

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सत्यार्थी जी के कथाकार का चरमोत्कर्ष तब था, जब उनके साथ-साथ मंटो, बेदी, कृश्नचंदर, अश्क और इस्मत चुगताई की कहानियां साहित्य के केंद्र में थी. इसलिए सत्यार्थी जी की कहानियों के लिए ये जरूरी संदर्भ भी हैं. हालांकि अपने समकालीनों में सत्यार्थी जी की कहानियां लोक-चेतना और लोक-तत्वों से हिल-मिलकर चलने के कारण सबसे अलग दिखाई पड़ती हैं. इसीलिए मंटो ने बड़ी हसरत के साथ उन्हें पत्र लिखा था, "काश, मैं खुशिया होता और आपके साथ-साथ यात्रा करता!" लोक-तत्वों का इतना अधिक, सार्थक और जीवंत प्रयोग उनके समकालीन तो क्या, हिंदी के और संभवत: भारतीय भाषाओं के किसी और साहित्यकार ने नहीं किया.

लेकिन सत्यार्थी जी की कहानियों का महत्त्व केवल लोक-तत्वों के कारण नहीं है और न यहां लोक-तत्त्व इकहरे रूप में आए हैं. खास बात यह है कि उनके यहां लोकचेतना और सामाजिक यथार्थ मिलकर या एकरूप होकर जिस तरह सामने आते हैं, उससे पूरी कहानी एक गहरी प्रतीकात्मकता के साथ आलोकित हो उठती है. 'अन्नदेवता' इस लिहाज से सत्यार्थी जी की सबसे अलग और याद रह जाने वाली कहानियों में से है. इसमें एक ओर भूख और अकाल की मार से कराहते गोंड युवक चिंतू और उसकी पत्नी हल्दी की वेदना है, तो दूसरी ओर समय के साथ बदल गए 'अन्न देवता' की ढिठाई और निष्ठुरता की कहानी, और ये दोनों कहानियां समांतर चलती हैं. कहानी में भूख और अकाल का इतना मर्मस्पर्शी चित्रण है कि वह पूरा का पूरा दौर आँखों के आगे आ जाता है, जब मुट्ठी भर अन्न के लिए लोग बेबस होकर गुहार कर रहे थे और गली-गली मृत्यु का तांडव हो रहा था. ऐसे भीषण दौर में जरा चिंतू की हालत देखिए-

"चिंतू ने फटी-फटी आंखों से अपनी पत्नी की ओर देखा. ऐसा भयानक अकाल उसने अपनी जिंदगी में पहली बार देखा था. धरती इस प्रकार बंजर हो गई थी जैसे स्त्री बांझ हो जाए या किसी नन्हे की माँ की छाती सूख जाए."

उधर हल्दी की हालत यह कि देखते ही देखते उसका सारा आनंद और यौवन रस झुलस गया. एक विचित्र बेबसी उसकी आँखों में है और उसे यह कतई समझ में नहीं आ रहा कि इतनी मन्नतें मानने के बावजूद आखिर अन्न देवता क्यों नाराज हो गया है-

"प्रति वर्ष हल्दी अन्न देव की मन्नत मानती थी. एक हल्दी पर ही बस नहीं, प्रत्येक गोंड स्त्री यह मन्नत मानना आवश्यक समझती है. पर इस वर्ष देवता ने एक न सुनी.

किस बात ने देवता को क्रुद्ध कर दिया है? क्रोध तो और देवताओं को भी आता है, पर अन्न देव को तो क्रोध नहीं करना चाहिए."

इस अकाल ने हल्दी की सारी सुंदरता छीन ली. चिंतू अपनी तरुणाई में ही एक सूखे पेड़ सरीखा लग रहा था, जिसमें कोई उत्साह की चमक नहीं थी. ऐसे में बैसाखू का भाई रामू आया तो कुछ उम्मीद बँधी. रामू बंबई में रहकर ठीक-ठाक कमाने लगा था. लेकिन गांव वालों की हालत देखकर उसका मन भी दुखी था. हल्दी का सवाल सुनकर उसके मुँह से जो शब्द निकले, वे गौर करने लायक हैं, "हां, हल्दी! अन्न देवता अब बंबई के महलों में रहता है...रुपयों में खेलता है...बंबई में, हल्दी, जहां तुमसे कहीं सुंदर स्त्रियां रहती हैं...!"

बेशक रामू की इस बात में बहुत गहरा और काटता हुआ व्यंग्य है. बदलते समय और मनुष्य की दारुण स्थितियों ने उसकी आश्था और विश्वास को किस तरह झिंझोड़ दिया है, इसका पूरा चित्र इस संवाद में खुल पड़ता है. यह दीगर बात है कि हल्दी को अब भी अपने अन्न देवता पर भरोसा है, और इस बात पर भी कि कभी न कभी तो ये हालात बदलेंगे. अलबत्ता, यह इस कहानी की शक्ति ही है कि इतने बरसों बाद भी इसके प्रभाव की गिरफ्त से बच पाना कठिन लगता है.

इसके अलावा सत्यार्थी जी की कहानियों की एक बड़ी खासियत यह है कि वे अपनी कहानी में चौंकाते कहीं नहीं हैं. छोटी-छोटी घटनाओं में गहरा रंग भर देना उन्हें आता है. दो-तीन पात्रों की गहरी, सघन बातचीत के जरिए यथार्थ को उघाड़ते चलना सत्यार्थी जी की प्रमुख शैली है. 'टिकुली खो गई' सरीखी उनकी कहानियां इसी अंदाज में लिखी गई काफी हलकी-फुलकी लेकिन पुरअसर कहानियां हैं, जो पाठकों के दिलों में उतरती और उन्हें रसमग्न कर देती हैं. कहीं वर्णन के जरिए तो कहीं लोकगीतों, लोककथाओं आदि के जरिए किसी बड़े संदर्भ को वे एकाएक ऐसे उभार देते हैं कि चमत्कृत रह जाना पड़ता है.

सत्यार्थी जी की कहानियों में विषयों की विविधता भी कम चकित नहीं करती. उनके यहां भूख, गरीबी और युद्धों की विभीषिका का चित्रण है तो प्रेम और यौवन का रस-उल्लास भी है. पारिवारिकता और दांपत्य का रस है, तो प्रकृति का मुक्त उल्लास और विस्मयकारी छवियां भी हैं. एक ओर जीवन की बेबसी, निराशा और विषाद का चित्रण है तो दूसरी ओर बच्चों का निश्छल, अबोध संसार भी वहां किलकता नजर आ जाता है. इसी तरह उनके यहां शहरी आधुनिकता के दृश्य हैं तो गांव की जिंदगी का कठोर यथार्थ और आदिवासी जीवन की विचित्र विडंबनाएं भी नजर आ जाती हैं.

यहां तक कि मानव-मन की अबूझ जिज्ञासाओं को थाहने की कोशिश में उनकी कहानियां किसी अज्ञात मन:लोक या अवचेतन संसार की ओर भी बढ़ने लगती हैं और इस दिशा में भी बहुत कुछ नया-नया लेकर आती हैं. 'पिकनिक', 'कुलफी' और 'ऑटोग्राफ बुक' सरीखी एकदम अलग विषयों पर लिखी गई सत्यार्थी जी की नवोन्मेषी कहानियों कुछ-कुछ इसी ढंग की हैं जो बाहर से ज्यादा भीतर की दुनिया की ओर इशारा करती हैं.

सत्यार्थी जी ने एक खास रंग-ढंग वाली प्रेम कहानियां भले ही न लिखी हों, लेकिन उनके कथा-संसार में प्रेम की कमी नहीं है. हवाओं में धीरे-धीरे गहराता देहराग या कहें शरीर की मंद आंच उनकी 'ब्रह्मचारी', 'दसौधासिंह' जैसी कहानियों में है और उनके कथा-संसार में ऐंद्रिय अनुभवों की मांसलता और सौंदर्य की मादकता के रंग बिखरेती इन कहानियों का अलग ही स्थान है. 'ब्रह्मचारी' कहानी में पहलगांव की यात्रा में मिली युवती सूरजकुमारी की अपूर्व सुंदरता का कैसा मोहक चित्रण है -

"सूरजकुमारी की मुसकान कितनी मोहिनी थी. वह कालिदास की किसी शृंगार-रस की कविता के समान थी, जिसमें शब्द एक से अधिक अर्थ प्रस्तुत करते हैं. मेरी समझ में यही बात आई कि उसकी मुसकान जयचंद और जियालाल के लिए नहीं, बल्कि मेरे लिए है."

उस रात सपने में रूपमुग्धा सूरजकुमारी को देखकर नायक के भीतर भावों की जो आंधी चल पड़ती है, उसका भी बहुत स्वाभाविक चित्रण इस कहानी में है -

"क्या सचमुच मैं वह दीया हूं जिसका तेल कभी समाप्त नहीं होता, जिसकी बाती कभी बुझती नहीं? क्या नारी माया है? सूरजकुमारी भी माया है? उसकी बांहों की गरमजोशी, उसकी लंबी-लंबी पलकें और उसके उभरे हुए गाल, क्या यह सब माया है? इस प्यार से भगवान रूठते हैं तो रूठ जाएं. यह बात थी तो सौंदर्य न बनाया होता, यह भावना न दी होती."

इस कहानी का अंत भी बहुत भावनात्मक और नाटकीय है, जो पाठकों के मन में एक मीठी हिलोर सी पैदा करता है.

इसी तरह 'सोनागाची' एक वेश्या के जीवन पर लिखी गई उनकी अद्भुत संवेदनात्मक कहानी है, जिसमें उस वेश्या की भूख और करुण विवशता बार-बार छलछला उठती है. वेश्याओं पर लिखी गई मांसल कहानियों से सत्यार्थी जी की इस गहन संवेदनात्मक कहानी का स्वर एकदम अलग है.
यहां एक कहानीकार के रूप में सत्यार्थी जी की बारीक अभिव्यंजना और गहरा शब्द-संयम देखते ही बनता है. इससे शब्द मानो इशारे में अपनी बात कहते चलते हैं और शब्दों के बीच छूटे मौन के जरिए बहुत कुछ व्यंजित कर दिया गया है.
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सत्यार्थी जी के कथा-संसार में वे कहानियां अलग से रेखांकित की जा सकती हैं जो उन्होंने अपनी बेटी कविता की मृत्यु के मार्मिक आघात को लेकर लिखी हैं, 'विषपान की बेला', 'कंचनमाटी', 'बरगद बाबा' ऐसी ही कहानियां हैं जिनमें सत्यार्थी जी की अंत:करुणा ही नहीं, उनका गहरा शब्द-संयम भी देखने लायक है. कविता के दुख ने उन्हें झिंझोड़कर रख दिया. यहां तक कि उनका पूरा जीवन मानो अस्त-व्यस्त हो गया, भूकंप से दरहम-बरहम किसी ऐतिहासिक इमारत की तरह. कहानी के शब्दों में भी वह दारुण वेदना एक करुण चीख के रूप में नजर आ सकती है, पर वह आहिस्ता-आहिस्ता उठती है और कहानी पूरी होते-होते दिल-दिमाग पर छा जाती है.

एक बार सत्यार्थी जी से उनकी प्रिय कहानियों के बारे पूछा गया तो उनका कहना था, "मुश्किल...बहुत मुश्किल है जवाब देना!" कहते-कहते उनके माथे की लकीरें थोड़ी सिकुड़ीं. फिर कुछ क्षण सोचने के बाद उन्होंने मेरे हाथ में पकड़े कलम और कागज-पत्तर की ओर इशारा करते हुए कहा -
"अच्छा, लिख लीजिए, 'चाय का रंग', 'कबरों के बीचोबीच', 'नए देवता', 'जन्मभूमि', 'ब्रह्मचारी'. एक कहानी 'टिकुली खो गई' भी मुझे पसंद है जो हो सकता है, औरों को एक कहानी नहीं, गुफ्तगू ही लगे. हां, एक और कहानी 'शबनमा' भी लिख लीजिए, जो एक वेश्या पर लिखी गई है.

इस कहानी की शुरुआत की लोगों ने बहुत तारीफ की थी. कहानी का उठान इस वाक्य से होता है, 'चकले में रात जरा कुछ पहले ही उतर आती है...!' बाद की कहानियां में 'दसौंधा सिंह' मुझे प्रिय है. यह पाकिस्तान की मशहूर पत्रिका 'नकूश' में छपी थी और वहां इसे खूब पसंद किया गया था. एक और कहानी 'जंगल-जंगल' भी मुझे प्रिय है. इसे राजेंद्र यादव ने 'हंस' में छापा था. यह भी मेरी पसंदीदा कहानी है, हालाँकि यह आपबीती ही है. और कहानी की जब चर्चा हो ही रही है तो आप एक बात मेरी ओर से जरूर लिख लें कि सिर्फ आप ही कहानी को बनाते नहीं हैं, कहानी भी आपको कुछ न कुछ बनाती जरूर है! आप चाहें तो मेरी पहली कहानी 'कुंगपोश' से लेकर 'जंगल-जंगल' और 'नाना जी दंदे' तक की सारी कहानियों को इस बात की गवाही में पेश कर सकते हैं."


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सत्यार्थी जी की कहानियों की चर्चा चलने पर उनकी असफलताओं की चर्चा भी जरूर की जानी चाहिए. बेशक सत्यार्थी जी की बहुत-सी कहानियां बिखरी-बिखरी सी कहानियां लगती हैं. कई बार वे बहुत अधिक फैलती जाती है और लगता है, हर शब्द दूसरे शब्द से, हर पंक्ति दूसरी पंक्ति से अलग हो गई है. और पता नहीं, सत्यार्थी जी कहना क्या चाहते हैं! पर शिद्दत से पीछा करें तो बहुत बार ये कहानियां अपना बारीक-बारीककर अर्थ खोलती हैं. तब समझ में आता है कि एक बड़े साहित्यकार की महान असफलताएँ भी साहित्य में एक दस्तावेजी महत्त्व रखती हैं.

फिर सत्यार्थी जी की कहानियों की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे किसी खास रूप-रंग या 'फॉर्मेट' में ढली कहानियां नहीं हैं. वे आलीशान बंगले में रखे खूबसूरत गमले की तरह कटी-तराशी कहानियां नहीं, आदिम जंगल की तरह फैलती और नित नए-नए रूपों में ढलती कहानियां हैं. जैसे जिंदगी का कोई एक बना-बनाया रूप नहीं है, ऐसे ही सत्यार्थी जी की कहानियां हर बार नए-नए दमदार रूपों में सामने आती हैं और उनमें बसी धरती और खानाबदोशी की गंध हमारे दिलों में छा जाती है. तब लगता है, ये कहानियां सिर्फ एक लोकयात्री की कहानियां ही हो सकती हैं, जिसने धरती को बड़ी शिद्दत से प्यार किया है और जिंदगी के नए-नए रूपों की तरह अपनी कहानियों को भी नित नए-नए रूपों में सामने आने के लिए खुला छोड़ दिया है.

यही वजह है कि सत्यार्थी जी की कहानियां औरों से इतनी अलग हैं और वे बीसवीं शताब्दी के समूचे इतिहास और लोक जीवन को अपने आप में समोए, अपने समय के अनमोल दस्तावेज सरीखी हैं. यह अकारण नहीं है कि एक दिग्गज कथाकार के रूप में सत्यार्थी जी आज हमें बार-बार याद आते हैं और उनकी कहानियों को पढ़ना अपने समय और इतिहास की गूँजती आवाजों को सुनने की मानिंद है.
 

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