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सत्यार्थी जी की कहानियों में जगह-जगह उनकी आत्मकथात्मक छवियां बिखरी पड़ी हैं और उनकी घुमक्कड़ी की वे रोमांचक दास्तानें भी, जब वे लोकगीतों की तलाश में गांव-गांव और डगर-डगर पर चलते हुए इस महादेश की परिक्रमा कर रहे थे.
हिंदी के दिग्गज कथाकारों में लोकसाधक देवेंद्र सत्यार्थी का नाम अलग पहचान में आता है. इसलिए कि उन्होंने कहानी की बनी-बनाई राह पर चलने से इनकार करके, अपनी एक अलग लीक, अलग राह बनाई. सत्यार्थी जी की कहानियों में जगह-जगह उनकी आत्मकथात्मक छवियां बिखरी पड़ी हैं और उनकी घुमक्कड़ी की वे रोमांचक दास्तानें भी, जब वे लोकगीतों की तलाश में गांव-गांव और डगर-डगर पर चलते हुए इस महादेश की परिक्रमा कर रहे थे. जेब में चार पैसे तक नहीं और कहीं ठहरने का ठौर-ठिकाना भी नहीं. पर धुन बड़ी थी, जो उन्हें निरंतर आगे बढ़ाती जा रही थी. ऐसे में कभी किसी पेड़ के नीचे आश्रय लिया तो कभी किसी फुटपाथ पर सोए. धरती का बिछौना, आसमान की चादर. फिर उन्हें और चाहिए भी क्या था?
इस यात्रा में वे हजारों किसान-मजदूर और गांव की स्त्रियों से मिले और उनसे सुने लोकगीतों को कॉपियों में उतारा. कॉपियों पर कॉपियां भरती गईं और उनके पैर आगे बढ़ते गए. और ऐसा उन्होंने कोई दो-चार साल नहीं, बल्कि बरसोंबरस किया. बल्कि उनका पूरा जीवन ही एक खानाबदोश लोकयात्री का जीवन है, जिन्होंने अपना पूरा जीवन लोक साहित्य को एक नई गरिमा और महनीयता प्रदान करने में लगाया. उनके कारण हर भाषा, हर जनपद में एक नई जागृति आई और देश के अलग-अलग भागों में सैकड़ों लोग लोक साहित्य की तलाश में निकले. यों देश में लोक जागृति का एक बड़ा आंदोलन ही खड़ा हो गया, जिसके नायक देवेंद्र सत्यार्थी थे.
इसमें संदेह नहीं कि सत्यार्थी जी की अथक लोक यात्राओं में हासिल हुए अनुभवों की अकूत संपदा ने ही उन्हें कहानीकार बनाया. पूरे बीस बरस तक लोकगीतों की तलाश में गांव-गांव भटककर हिंदुस्तान के चप्पे-चप्पे की धूल छान लेने वाले सत्यार्थी यहीं रुके नहीं. उन्होंने लोक साहित्य की ऊर्जा और आत्मा को साहित्य के सर्जनात्मक रूपों में ढालने की एक नई मुहिम शुरू की. लोक साहित्य पर लिखे गए उनके लेखों में तो सर्जनात्मक भाषा का रूप, लोक संवेदना की कसक, पीड़ा और एक अछूता रस-माधुर्य था ही. बाद में चलकर उन्होंने कहानी, रेखाचित्र, संस्मरण, उपन्यास, कविता सभी में हाथ आजमाया और खासकर उनके कथा-साहित्य की खासी धूम रही.
उस जमाने में उर्दू में मंटो, बेदी, कृश्न चंदर और इस्मत चुगताई के साथ सत्यार्थी जी की कहानियां खूब धज से छपती थीं और जोरों से उनकी चर्चा होती थी. बगैर सत्यार्थी जी की कहानियों के उस दौर की कहानियों की ऊर्जा, शक्ति और संवेदना को जाना ही नहीं जा सकता और न कहानी के इतिहास की चर्चा की जा सकती है. सत्यार्थी जी उस समय सुर्खियों में थे और कहानी की बड़ी से बड़ी पत्रिका उनकी कहानियों को पाकर धन्य होती थी. उर्दू की 'हुमायूँ' और 'अदबेलतीफ' समेत अनेक नामी पत्रिकाओं के साथ-साथ हिंदी की 'हंस', 'कल्पना' और 'कहानी' सरीखी पत्रिकाओं में सत्यार्थी जी की बहुत कहानियां छपीं.
यह दीगर बात है कि सत्यार्थी जी के लिए इसके कुछ खास मानी न थे. न प्रसिद्धि की लालसा उनके मन में कभी थी और न उन्होंने उसे कभी महत्त्व दिया. लोकगीतों की खोज हो या कहानियां, उपन्यास वगैरह, वगैरह- यह सब सत्यार्थी जी की दीवानगी और आवेगभरी यात्राओं की उपलब्धि थी. इसलिए सत्यार्थी जी के लोक-संग्राहक रूप और सर्जक रूप के बीच हम चाहे दीवारें कितनी ही खींच लें, सत्यार्थी जी के लिए वे एक ही हैं. अपने व्यक्तित्व पर किसी खास रंग-ढंग का लेबल लगाना उन्हें कभी पसंद नहीं रहा. उनका जीवन तो कबीर की फक्कड़ी और सधुक्कड़ी की तरह था और मंत्र था, 'चरैवेति चरैवेति...!' इस लिहाज से वे बीसवीं सदी के हिंदी जगत के अनोखे घुमंतू साहित्यकार थे, जिनकी किसी से तुलना हो ही नहीं सकती!
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आखिर देवेंद्र सत्यार्थी ने लोक साहित्य के मर्मज्ञ और व्याख्याता के रूप में चतुर्दिक ख्याति पा लेने के बाद कहानियां लिखने का फैसला क्यों किया? एक बार पूछने पर उन्होंने बताया था कि वे उन दिनों राजेंद्रसिंह बेदी के पास ठहरे थे जो तरक्कीपसंद कहानीकार के रूप में मशहूर हो चुके थे और सत्यार्थी जी को उनकी कहानियां बेहद प्रिय थी. लोकयात्री सत्यार्थी लाहौर में उनके साथ रोजाना घूमने जाया करते थे और रास्ते में अपनी यात्राओं के अजीबोगरीब अनुभव और संस्मरण सुनाया करते थे. वे जब भी कोई घटना सुनाते, बेदी झट कह उठते, "अरे, यह तो कहानी हो गई!"
बस, इसी बात ने उन्हें उत्प्रेरित किया और वे कहानी लिखने बैठ गए. राजेंद्रसिंह बेदी उम्र में उनसे छोटे थे, पर सत्यार्थी जी ने उन्हें अपना कथागुरु मान लिया तो जीवन भर गर्व से कहते रहे, "राजेंद्रसिंह बेदी कहानी में मेरे गुरु हैं."यों सत्यार्थी जी ने कहानियां लिखी नहीं, समय ने उन्हें खुद-ब-खुद कहानीकार बनाया. सत्यार्थी जी की कहानियों में जीवन की घुमक्कड़ी के इतने बीहड़, कठोर और दुस्साहसी अनुभव हैं कि वे जल्दी ही जीवन के खुले विस्तार और ऊष्मा से सराबोर कहानीकार के रूप में पहचाने जाने लगे. उनकी कहानियों में लोकगीतों का आस्वाद और रस-माधुर्य ही नहीं, फसलों की लहलहाती गंध, खेतों की मिट्टी की खुशबू, गरीब किसान-मजदूरों के लहू और पसीने की गंध, शोषण की आकुल पुकारें तथा दुख और पीड़ाओं का सैलाब भी है. वाल्ट व्हिट्मैन की तरह वे जनता के अनंत सुख-दु:ख को बांहों में बांधे, उसके साथ-साथ हंसते-रोते और गाते हैं. सत्यार्थी जी के पास दुस्साहसी अनुभवों का जो अकूत खजाना था और उनके स्वभाव में जो गरमजोशी और खुलापन था, वह रह-रहकर उनकी कहानियों में छलकता. और एक बार उन्होंने कहानी की दुनिया में पैर रखा तो वे सरपट इस ओर भागते ही चले गए. देखते ही देखते वे अपने समकालीन कहानीकारों की प्रथम पंक्ति में आ गए.
फिर जब उन्हें लगा कि कहानियों में उनके अनुभव पूरी तरह नहीं समा पा रहे हैं, तो उन्होंने उपन्यास लिखे. उनके 'ब्रह्मपुत्र', 'रथ के पहिए', 'कथा कहो उर्वशी', 'दूध-गाछ', 'कठपुतली', 'घोड़ा बादशाह', 'सूई बाजार' आदि उपन्यास आज भी आंचलिकता की भीनी सुवास और अछूते अनुभवों की ताजगी के कारण अलग से पहचान में आते हैं.
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लेकिन लगता है, सत्यार्थी जी ने जब लोकगीत-संग्रह करते-करते और इसमें अपने जीवन के करीब-करीब बीस कीमती वर्ष लगा देने के बाद अचानक कहानियां लिखने का फैसला किया तो शुरू-शुरू में उन्हें व्यंग्य और उपेक्षा भी खूब सहनी पड़ी. उन लोगों की व्यंग्यभरी नजरें उनका लगातार उपहास कर रही थीं, जो उन्हें एक खास रूप में देखने के आदी हो चुके थे. सत्यार्थी जी ने अपने पहले कहानी-संग्रह 'चटटान से पूछ लो' के आमुख में इस पीड़ा का बयान किया है-"सन् 1940 के अंतिम दिनों की बात है. मुझे एकाएक कहानियां लिखने की बात सूझ गई. एक मित्र ने बड़े व्यंग्य से कहा- तुम तो रात भर में कहानी-लेखक बन गए. अनेक मित्रों ने बड़ी आशंका प्रकट की. उनके मतानुसार यह मेरी भूल थी और मुझे लोकगीत के पथ से भटकना नहीं चाहिए था. मैं उनके उपदेश सुनता और हंस देता. एक ने तो यहां तक कह दिया- कहानी तुम्हारे बस का रोग नहीं! क्यों बेकार समय गंवाते हो?"
'कुंगपोश' सत्यार्थी जी की पहली महत्त्वपूर्ण और बहुचर्चित कहानी थी, जो 'चट्टान से पूछ लो' में संगृहीत है. हवा में उड़ते पराग कणों की तरह इस कहानी की स्वच्छंद लय ने पाठकों को बेहद प्रभावित किया तो साथ ही सत्यार्थी जी को भी अपने ढंग के एक निराले कथाकार के रूप में प्रसिद्ध कर दिया. इसमें कश्मीर के केसर के खेतों और वहां के अछूते यौवन की सुंदरता और मादकता का गहरा रंग है. साथ ही कहानी में धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर की प्राकृतिक सुषमा और लावण्य का ऐसा चित्ताकर्षक रूप है, जो पाठकों को रसमग्न कर देता है. कहना न होगा कि भारतीय कथा साहित्य में कश्मीर की नैसर्गिक सुंदरता का चित्रण करने वाली ऐसी अद्भुत कहानी शायद ही कोई और हो.हालांकि सत्यार्थी जी ने यह कहानी अपने एक मित्र को सुनाई तो उसका कहना था, "तुम कहानियां लिखो...पर तुम्हें सदैव एक लोकगीत-संग्रहकर्ता के रूप में याद किया जाएगा, कहानी-लेखक के रूप में नहीं." हारकर उन्होंने अपने मित्र से बहस करना छोड़कर, अपनी वेदना सीधे-सादे निभ्रांत शब्दों में कही-
"हवा के कंधों पर जैसे धूल के कण उड़ते फिरते हैं, ऐसे ही मैंने जिन व्यक्तियों को बहुत समीप से देखा, वे मेरी कल्पना को छू-छू जाते हैं. उन्हें मैं भुला तो सकता नहीं और यदि मैं कहानियों में उनके चित्र प्रस्तुत करते हुए अपने हृदय और मस्तिष्क को हल्का न करूं, तो मैं लोकगीत संबंधी अपने कार्य में भी पूरी रुचि से नहीं जुटा रह सकता."
ये सचमुच सीधे हृदय से निकली मार्मिक पंक्तियां हैं, जिसके पीछे का निश्छल गहरा व्यक्तित्व और तकलीफ साफ दिखाई देती है. सत्यार्थी जी की कहानियों के पीछे की पृष्ठभूमि ही नहीं, उसके पीछे जीवनानुभवों का जो गहरा दबाव है, वह भी समझ में आता है.
'चट्टान से पूछ लो' की कहानियों में कई रंग हैं. अगर 'कुंगपोश' में एक कश्मीरी युवती की वेदना के साथ-साथ लोकगीतों की सी मीठी सरसता है, तो 'काँगड़ी' में कश्मीर की आजादी की लड़ाई का बेहद प्रामाणिक चित्रण है. 'अमन का एक दिन' में विश्व-युद्धों के खतरे की विभीषिका है. संग्रह की दो सबसे महत्त्वपूर्ण कहानियां हैं 'जन्मभूमि' और 'कबरों के बीचोबीच', जिनकी उन दिनों खूब चर्चा हुई और हिंदी कथा-साहित्य के इतिहास में उनकी एक खास जगह है. 'जन्मभूमि' देश-विभाजन की रक्तरंजित त्रासदी से उपजी एक मार्मिक कहानी है, जिसकी करुणा आज भी हमें भीषण दंगों और रक्तपात में मारे गए हजारों बेगुनाहों की याद के साथ थरथरा देती है. देश-विभाजन की पृष्ठभूमि पर इतने गहरे तौर से विचलित कर देने वाली कहानियां कम ही लिखी गईं. अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों ने सत्यार्थी जी की इस कालजयी कहानी की करुणा में भीगकर बड़े सम्मान से इसकी चर्चा की है. उस दौर की शाहकार कहानियों में इसकी गिनती होती है.
'जन्मभूमि' को पढ़कर पता चलता है कि पंजाब के लोगों के लिए देश-विभाजन की यह अनकही पीड़ा कितनी करुण, कितनी दुस्सह और मर्मांतक थी और देखते ही देखते बहुत कुछ उजाड़ हो गया था. उन उजड़े हुए परिवारों का दुख असहनीय है. सत्यार्थी जी ने इस कहानी में पाकिस्तान से शरणार्थियों को लेकर भारत आती रेलगाड़ी का दिल को थरथरा देने वाला वर्णन किया है. गाड़ी में बैठे हर शख्स के मन में बलवाइयों का डर है, जो रास्ते में कुछ भी कर सकते हैं. गाड़ी बीच-बीच में घंटों रुकी रहती है और इसके साथ ही यात्रियों की सांसें भी. लोग आलू की बोरियों की तरह गाड़ी में ठुंसे हैं और गरमी के मारे सबका बुरा हाल है. पानी का एक गिलास पचास रुपए में मिल रहा है और मजबूरी में होंठ गीले करने के लिए वही खऱीदना पड़ रहा है. ऐसे में बीमार पत्नी और तीन मासूम बच्चों के साथ रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे एक गरीब स्कूल मास्टर की मनःस्थिति क्या है, यह इन पंक्तियों से पता चल सकती है-
"कंधों पर पड़ी हुई फटी-पुरानी चादर को वह बार-बार संभालता था. इसे वह अपनी जन्मभूमि से बचाकर लाया था. बलवाइयों के अचानक गांव में आ जाने के कारण वह कुछ भी तो नहीं निकाल सका था. बड़ी कठिनाई से वह अपनी बीमार पत्नी और बच्चों के साथ भाग निकला था. अब इस चादर पर उंगलियां घुमाते हुए उसे गांव का जीवन याद आने लगा. एक-एक घटना मानो एक-एक तार थी, और इन्हीं तारों की सहायता से समय के जुलाहे ने जीवन की चादर बुन डाली थी. इसी चादर पर उंगलियां घुमाते हुए उसे मानो उस मिट्टी की सुगंध आने लगी, जिसे वह वर्षों से सूंघता आया था. जैसे किसी ने उसे जन्मभूमि की कोख से जबरदस्ती उखाड़कर इतनी दूर फेंक दिया....अब यह जन्मभूमि नहीं रह गई. देश का बंटवारा हो गया. अच्छा चाहे बुरा. जो होना था, सो हो गया. अब देश के बंटवारे को झुठलाना सहज नहीं. पर क्या जीवन का बंटवारा भी हो गया?"
सच पूछिए तो सत्यार्थी जी की कहानी 'जन्मभूमि' एक ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह है, जिसे बार-बार पढ़ने की जरूरत है. लगता है, यह कहानी सत्यार्थी जी ने लिखी नहीं, बल्कि इतिहास-पुरुष ने ही मानो एक करुण जीवन-लीला का साक्षी बनाकर उनसे लिखला ली हो. ताकि आने वाली पीढ़ियां, जान सकें कि गुजरे इतिहास में कैसी अनगिन पीड़ाएं और त्रासदियां छिपी हैं, जिन्होंने मानवता को एक गहरे इम्तिहान के दौर से गुजरने को विवश किया. बहुत कुछ तबाह हुआ, पर उसी पर नई आशा और उम्मीदों से भरे एक नए सृजन की नींव भी रखी गई.
इस संग्रह की दूसरी यादगार कहानी बंगाल के अकाल पर लिखी गई एक मार्मिक कहानी 'कबरों के बीचोंबीच' है जिसमें भूख से मरते हुए लोगों की बेपनाह तकलीफों के बीच नकली सिद्धांतों और आंकड़ों का हिसाब-किताब बिठा रहे बुद्धिजीवियों के दोहरे-तिहरेपन पर चुभीला व्यंग्य है. कहानी के अंत में झुर्रीदार चेहरे वाली कंकाल-प्राय: बुढ़िया की उपस्थिति- जो खुद मौत के क्रूर व्यंग्य-जैसी है, पूरी कहानी को एक जबरदस्त ट्रेजडी में बदल देती है, जिसे भुला पाना असंभव है.
'जन्मभूमि' की करुणा अगर दूर तक विचलित करती है तो 'कबरों के बीचोंबीच' का व्यंग्य सचमुच काटता चला जाता है. ये दोनों ही सही मायने में सत्यार्थी जी की 'कालजयी' कहानियां हैं.
इससे इतना तो पता चलता है कि सत्यार्थी जी की कहानियां शुरू से ही किसी सीधी-सपाट सड़क पर चलती कहानियां नहीं रहीं. खुद सत्यार्थी जी इस बात को जानते हैं और जब वे कहानी की दुनिया में आए तो सीधे-सपाट रास्तों पर चलने के लिए नहीं, नई चुनौतियां स्वीकार करने के लिए आए. उनके पास इसका अपना दमदार तर्क भी है-
"कहानी की नपी-तुली सीधी सड़क पर चलते रहना आधुनिक कहानी-लेखक को कहीं भी प्रिय नहीं रहा. कलाकार के रूप में कहानी-लेखक को भी अपनी कला में नए प्रयोग प्रस्तुत करने का दायित्व निभाना होता है. इसके बिना वह कहानी-कला की प्रगति के साथ न्याय नहीं कर पाता."
इसके बाद के संग्रहों में 'चाय का रंग', 'सड़क नहीं, बंदूक' और 'नए धान से पहले' में सत्यार्थी जी कहानियां ज्यादा खुलकर और दुस्साहसी ढंग से अपनी बात कहती नजर आती हैं. यथार्थ के न सिर्फ नए-नए स्तर, बल्कि बात कहने की नई-नई शैलियां और भाषा की बारीक अर्थ-छवियां भी यहां नजर आती हैं. 'चाय का रंग' में 'इकन्नी' जैसी छोटी और मार्मिक कथा में निजी जीवन का कोई पृष्ठ उघड़ पड़ा है तो 'चाय का रंग' जैसी सत्यार्थी जी की लंबी महत्वाकांक्षी कहानी भी है. 'अन्न देवता' में लोकतत्त्व को प्रतीक के अर्थ में एक नई अर्थभूमि दी गई है तो 'ब्रह्मचारी' में एंद्रिय अनुभवों की मांसलता है जो सौंदर्य के बड़े बारीक आवरण में झाँकती है.इनमें 'इकन्नी' बेहद मर्मस्पशी कहानी है, जिसमें सत्यार्थी जी के यायावर जीवन का दर्द बहा चला आता है. 'इकन्नी' कहानी तो है ही, पर साथ ही सत्यार्थी जी की आत्मकथा का एक करुण वेदना भरा पन्ना भी है, जो पाठकों के दिलों को झिंझोड़ देता है. यों कहानी का घटना-चक्र संक्षिप्त ही है. हुआ यह कि बनारसीदस चतुर्वेदी ने सत्यार्थी जी को कुंडेश्वर आमंत्रित किया, जहां वे लोक साहित्य की एक प्रसिद्ध पत्रिका निकालते थे. पर सत्यार्थी जी तो एकदम फटेहाल थे, जिनके पास यात्रा के लिए किराए के पैसे भी न थे. उन्होंने अपने मित्र से कुछ पैसे उधार लिए और यात्रा पर रवाना हो गए. इस बीच उन्हें पता चला कि रेल का किराया बढ़ गया है. पर अब वे क्या करें? उनके पास तो अतिरिक्त पैसे थे ही नहीं. इस हालत में कितनी विचित्र स्थितियों से गुजरते हुए वे कुंडेश्वर पहुंचे, कहानी में इसका बड़ा मार्मिक वर्णन है.
अंत में किसी तरह एक इकन्नी उनके पास बच रहती है. यह इकन्नी उन्होंने अपने फटे जूते की मरम्मत करने वाले मोची के मेहनताने के रूप में उसकी हथेली पर रखी, तो काम के बदले पूरी एक इकन्नी पाकर उसे जैसे अपनी आंखों पर यकीन ही न हो पा रहा हो. एक क्षण के लिए वह सत्यार्थी जी की ओर देखता रह गया. तब सत्यार्थी जी के मन में उस इकन्नी के साथ जुड़ी पूरी एक विडंबना भरी कहानी तैर जाती है. उस समय तक सत्यार्थी जी एक लेखक के रूप में खासे प्रसिद्ध हो चुके थे. पूरे देश में उनका नाम बड़े सम्मान से लिया जाता था. पर इस मशहूरी के बावजूद जैसी कठिन स्थितियों में उन्हें जीना पड़ रहा था, उसे पढ़कर एक लेखक की विडंबना की जो तसवीर सामने आती है, उससे पाठकों की आँखें भर आती हैं.
इसी तरह 'ऑटोग्राफ बुक', 'टिकुली खो गई', 'नए देवता', 'लीलारूप' उस दौर के हिसाब से बहुत आगे की, यानी नए रंग-ढंग की कलात्मक कहानियां हैं. इनमें 'नए देवता' और 'लीलारूप' की चर्चा उस दौर में इसलिए भी काफी हुई कि 'नए देवता' मंटो पर लिखी गई एक तेज कहानी है और 'लीलारूप' के पीछे से अज्ञेय के आभिजात्य की लीला रह-रहकर झांकती है.ये दोनों ही कहानियां काफी खतरा उठाकर लिखी गई 'असुविधाजनक' कहानियां हैं. इसका सबूत यह है कि 'नए देवता' पढ़कर मंटो कई साल तक सत्यार्थी से नाराज रहा था. और फिर उसकी शर्त के मुताबिक एक होटल में दावत देकर उसे मनाया जा सका. अज्ञेय भी 'लीलारूप' पढ़कर नाराज तो हुए, लेकिन उनकी नाराजगी इतने उग्र या प्रचंड रूप में सामने नहीं आई. उन्होंने उसे एक शालीन आभिजात्य में ढक लिया, लेकिन वर्षों तक अज्ञेय और सत्यार्थी जी के संबंध असहज रहे. काफी बाद में जाकर बात साफ हुई. तब अज्ञेय जी को समझ में आया कि उन्हें लेकर सत्यार्थी जी के मन में कोई पूर्वाग्रह नहीं है, बल्कि एक तरह का स्नेह भाव और आदर ही है. पर कहानी लिखते समय कथाकार को किसी स्थिति को कथात्मक पूर्णता तक ले जाने के लिए एक अलग जामा पहनाना होता है. यह उसकी कलात्मक विवशता है, पूर्वाग्रह नहीं.
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'चाय का रंग' में सत्यार्थी जी की सर्वाधिक चर्चित कहानियां हैं. उसके बाद 'सड़क नहीं, बंदूक' और 'नए धान से पहले' संग्रह सामने आए. सत्यार्थी जी की कहानियों की धारा में अब एक स्पष्ट बदलाव नजर आता है. 'सड़क नहीं, बंदूक' में शीर्षक कहानी के अलावा 'पिकनिक', 'एक फोटो की कहानी', 'फत्तू भूखा है', 'मिस बिलिमोरिया' और 'जोड़ा साँको' की उस दौर में खासी चर्चा हुई थी. 'नए धान से पहले' संग्रह की कहानियों में 'नए धान से पहले', 'एक घोड़ा एक कोचवान', 'सतलज फिर बिफरा', 'अर्चना के पापा जी' और 'सोनागाची' सत्यार्थी जी की यादगार कहानियां हैं. और मजे की बात यह है कि ये सभी कहानियां बहुत नपी-तुली भाषा में अपनी बात कहने वाली कटी-सँवरी कहानियां नहीं हैं. बल्कि जीवन के सहज आवेश से भरकर ये बार-बार कहानी के बने-बनाए फ्रेमों को तोड़कर बाहर निकल आती हैं. ये इतनी सच्ची, आत्मीय और गहरी जिजीविषा से भरी कहानियां हैं कि हर बार हमें लाचार होकर कहानी की अपनी तंग परिभाषा को थोड़ा और ढील देनी पड़ती है.निश्चित रूप से सत्यार्थी जी की ये कहानियां एक बड़े परिवर्तन की वाहक हैं. लिहाजा ये एक साथ प्रयोगात्मक कहानियां हैं और यथार्थवादी भी, जिनके लिए उन्हें एक अलग भाषा और शिल्प ईजाद करना पड़ा. सत्यार्थी जी की पिछली कहानियों से तो ये अलग हैं ही, उस दौर में लिखी जा रही अन्य कहानियों से भी अलग अपनी उपस्थिति दर्ज करती हैं. खुद सत्यार्थी ने 'सड़क नहीं, बंदूक' की भूमिका में इस बात को खूबसूरती से प्रकट किया है-
"कुछ कहानी-लेखक आज भी सुंदर शब्दों और रोमान के रेशमी तारों के बलबूते पर ही कहानी का ताना-बाना प्रस्तुत करते हैं. पर जब रोमान का परदा चाक करते हुए कहानी-लेखक जीवन के विस्तृत क्षेत्र में उतरता है तो उसे शब्दों की कमी बुरी तरह अखरती है. शब्दों की ताजगी, शक्ति और पुकार से परिचित होने के लिए उसे हमेशा अपने कान खुले रखने होंगे. शब्दों की आवाजों के संतुलन द्वारा इनके रंगों से बहुत बड़ा काम लिया जा सकता है- यदि यह बात नहीं तो वातावरण का चित्रण भी अधूरा ही रहता है."इससे इतना तो जरूर पता चलता है कि सत्यार्थी जी की कहानियों में भले ही उनके मनमौजी व्यक्तित्व की छाया है, पर कहानी लेखक के रूप में वे बेहद सजग हैं ताकि कहानी का जो बिंब और अंतःभावना उनके मन में है, वह ठीक-ठीक शब्दों में उतर सके. यही कारण है कि सत्यार्थी जी की कहानियां सीधे पाठकों के दिलों में उतरती हैं और उन्हें बेहद आंदोलित करती हैं. कहानी पढ़ने के बाद आप वही नहीं रह जाते, जो पहले थे. सीधे-सीधे जिंदगी की तकलीफों से जुड़ी सत्यार्थी जी की ये भावनात्मक और संवेदनवाही कहानियां पाठकों को अपने साथ बहा ले जाती हैं और उनके दिलों में सही और गलत को लेकर एक युद्ध छेड़ देती हैं. पाठक इससे प्रभावित न हो, यह हो ही नहीं सकता.
यह अकारण नहीं कि सत्यार्थी जी के पाठक बरसों पहले पढ़ी गई उऩकी कहानियों को फिर-फिर याद करते, और उऩ्हें एक बार फिर पढ़ने की ललक के साथ खोजते और इसरार करते नजर आते हैं. किसी कहानीकार की इससे बड़ी सफलता शायद कुछ और नहीं हो सकती.**
इससे यह बात भी समझ में आए बगैर नहीं रहती कि क्यों सत्यार्थी जी की तमाम कहानियां बार-बार रेखाचित्र और संस्मरण की हदों को छूने लगती हैं. सत्यार्थी जी अकसर अपने निजी जीवन की किसी करुण घटना या फिर निकट से देखी गई सच्ची घटनाओं पर कहानियां लिखते हैं. यह बात भी उन्हें दूसरे कहानीकारों से अलगाती है. इससे उनकी कहानियों में अनुभव की ताजगी और सहज विश्वसनीयता तो आती है, साथ ही उन्हें पढ़ना एक सच्ची जीवन कथा को पढ़ने सरीखा भी लगता है. कई बार उनके यहां कहानी और आत्मकथा एक हो जाती है तो कई जगहों पर कहानी और संस्मरण भी घुल-मिलकर एक नई और अद्भुत रचना में ढल जाते हैं, जिसका आस्वाद पाने के लिए हमें बार-बार सत्यार्थी जी और उनके कथा-संसार के निकट आना पड़ता है.सत्यार्थी जी की इन आत्मपरक कहानियों को पढ़ते हुए लगता है, जैसे बरसों पहले घटित हुए किसी प्रसंग को हम हू-ब-हू फिर से अपनी आँखों के आगे घटित होते देख रहे हों. पर कई बार वे कहानियां बनते-बनते रह गई कहानियां भी लगती हैं. उनके कैनवास कई बार बेडौल और अनियंत्रित भी हो जाते हैं और उनमें बहुत कुछ इधर-उधर का भी समाता चला जाता है, जो कहानी की मुख्य संवेदना से सीधे-सीधे नहीं भी जुड़ता.
यों सत्यार्थी जी की इस ढंग की जो सफल कहानियां हैं, उनमें अजब-सी धार और मारक व्यंग्य भी उभर आया है. जो यथार्थ से सीधे-सीधे दो-चार होने वाले आदमी को ही हासिल हो पाता है. मसलन 'जोड़ा साँको' गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के निधन पर लिखी गई विलक्षण कहानी है. और खास बात इस कहानी के पीछे की आंख या विजन है. कहानी बड़ी बारीकी से इस ओर इशारा करती है कि जहां रवींद्र साहित्य के मुट्ठी भर अधिकारी विद्वान विश्व साहित्य में उनके स्थान को लेकर बंद कमरे में माथापच्ची करते रह जाते हैं, वहां अनपढ़ और नासमझ समझी जाने वाली भीड़ का सैलाब हजार हाथों से बढ़ता है और देखते ही देखते जनता के कंधों पर उनकी अर्थी फूल की तरह तिरती चली जाती है. लहरों पर कमल की तरह तिरती अर्थी का यह बिंब सचमुच कमाल का है. इसी तरह 'एक फोटो की कहानी' में सत्यार्थी जी के घुमक्कड़ जीवन का एक रोमांचक अनुभव है.
'फत्तू भूखा है' में जिस फत्तू की कहानी कही गई है, उसे सत्यार्थी जी बचपन से ही अपने घर में देखते आए थे. 'फत्तू भूखा है' बड़ी अद्भुत कहानी है. एक तरह की आत्मकथात्मक कहानी. फत्तू उनके घर भैंसों को चराने वाला युवक है. एक अनाथ लड़के की तरह वह इस घर में आया और फिर हमेशा के लिए यहीं का होकर रह गया. भैंसों की वह इतने मन और लगन से सेवा-टहल करता है कि उनका दूध दूना हो गया. पर बदले में पैसे या तनख्वाह लेना उसे मंजूर नहीं. आखिर वह इस घर का ही तो प्राणी है. यों फत्तू चरवाहा है, मगर घर में उसका स्थान बेटे की तरह है और वह भी इसी घर को अपना घर मानकर रह रहा है. फत्तू का दिल कितना ब़ड़ा है और उसकी भावनाएँ कितनी ऊंची हैं, कहानी में इसका बड़ा कमाल का चित्रण है-
"हर साल फत्तू ईद के अवसर पर सवेरे-सवेरे अपनी भैंसों को नहलाता है और फिर एक-एक के कान में कहता जाता है- कल ईद है! और रात को नहर के किनारे वह अपने साथ उन्हें भी ईद का चांद दिखाकर खुशी से झूम-झूम उठता है. और फिर कार्तिक की पूर्णमासी पर वह उन्हें मेला दिखाने ले जाता है. कहता है- इन्हें भी तो मालूम होना चाहिए कि आज बाबा नानक का जन्मदिन है."पर एक दिन जब उसकी प्यारी भैंस रेशमा बिकने लगी, तो उसने घर में भूख हड़ताल कर दी. उसे सबने मनाने की कोशिश की, पर वह नहीं माना. यहां तक कि उसकी प्यारी भैंस रेशमा ने भी उसे मनाने में कोई कोर-कसर नहीं रखी-
"रेशमा ने अपनी थूथनी फत्तू की खाट पर रख दी और अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से उसकी ओर देख रही है. जैसे कह रही हो- हां, हां, फत्तू, पहले कुछ खा लो. चाची की बात रख लो, कब तक भूखे रहोगे? अपनी भूख की तो मुझे कुछ चिंता नहीं. तुम जरूर मेरे दूध की खीर बनवा लो अपने लिए."
तब उसे वचन दिया गया कि रेशमा नहीं बिकेगी. पर आखिर जो कुछ हुआ, उसने फत्तू को भीतर-बाहर से तोड़ दिया. और सिर्फ फत्तू ही नहीं, कहानी का पाठक भी अंत तक आते-आते एकदम स्तब्ध सा रह जाता है.
अपनी आत्मकथा 'चाँद-सूरज के बीरन' में भी सत्यार्थी जी ने फत्तू का अच्छा चित्रण किया है. कहानी लिखते समय वे फत्तू का नाम बदलने तक की जरूरत नहीं महसूस करते. शायद इसलिए सत्यार्थी जी की कहानियां धरती और जिंदगी की कहानियां है जिनमें बनावट बिल्कुल नहीं हैं. उनसे गुजरते हुए भूख, गरीबी शोषण और मजदूर-किसानों के दुख-दर्द की गूँजें जगह-जगह सुनी जा सकती हैं. वे इस बात को बहुत अच्छी तरह समझते हैं कि भूखे आदमी के लिए बुद्धि और कला की बारीकियां और 'फाइनर इंस्टिंक्ट्स' का कुछ मतलब नहीं है. लाखों-करोड़ों अगर भूख की चक्की में पिस रहे हों तो उनसे बेपरवाह होना शर्म की हद तक घटिया है.
इसी तरह बंगाल के भयंकर अकाल और देश-विभाजन तथा सांप्रदायिकता की आँधियों के बहुत विचलित कर देने वाले गहरे अक्स सत्यार्थी जी की कहानियों में नजर आते हैं.
इसके बाद की सत्यार्थी जी की कहानियों में जो 'नीलयक्षिणी', 'मिस फोकलोर' तथा 'हैलो गुडमैन दि लालटेन' में शामिल हैं, एक परिवर्तन साफ तौर से नजर आता है. वहां कथा-तत्त्व लगातार झीना होता जाता है और भाषा में बौद्धिक गहराई और एक उस्तादाना टच आने लगता है. कथा-तत्त्व के विखंडन के बावजूद उनकी चमक और अहसास की कौंध कहीं कम नहीं होती. फिर भी एक बात तय है कि इनमें पहले जैसा जीवन का सहज आवेश और गरमजोशी नहीं है. सत्यार्थी जी के तमाम पाठकों को इससे धक्का भी लगा. "सत्यार्थी अब काफी हाउस का कथाकार बन गया है!" जैसी व्यंग्योक्तियों का भी उन्हें सामना करना पड़ा. लेकिन सत्यार्थी जी ने पीछे मुड़कर देखना पसंद नहीं किया. उनका जवाब था, "मैं खुद को दोहराता नहीं रह सकता. मुझे नए अनुभवों के साथ चलना है."
सत्यार्थी जी की बाद की कहानियां दरअसल मोहभंग की कहानियां हैं और उनमें उनके निराश और टूटे हुए मन की अभिव्यक्तियां हैं. खासकर जवाब बेटी कविता के निधन के बाद तो सत्यार्थी जी बुरी तरह टूटे. उनके भीतर यह अपराध-बोध घर कर गया कि उनकी लोकयात्राओं और घुमक्कड़ी ने ही उनकी बेटी की बलि ले ली. और जिस तरह निराला अपनी कविताओं से बेटी का तर्पण करते हैं, करीब-करीब उसी अंदाज में सत्यार्थी जी ने अपनी बेटी कविता को याद करते हुए, बहुत उदास, भरे हुए दिल से तमाम कहानियां लिखीं. इनमें कुछ तो सचमुच लाजवाब हैं. हताश और टूटे हुए सत्यार्थी जी की तब की मन:स्थिति इन कहानियों में पूरी तरह खुलती है.
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सत्यार्थी जी के कथाकार का चरमोत्कर्ष तब था, जब उनके साथ-साथ मंटो, बेदी, कृश्नचंदर, अश्क और इस्मत चुगताई की कहानियां साहित्य के केंद्र में थी. इसलिए सत्यार्थी जी की कहानियों के लिए ये जरूरी संदर्भ भी हैं. हालांकि अपने समकालीनों में सत्यार्थी जी की कहानियां लोक-चेतना और लोक-तत्वों से हिल-मिलकर चलने के कारण सबसे अलग दिखाई पड़ती हैं. इसीलिए मंटो ने बड़ी हसरत के साथ उन्हें पत्र लिखा था, "काश, मैं खुशिया होता और आपके साथ-साथ यात्रा करता!" लोक-तत्वों का इतना अधिक, सार्थक और जीवंत प्रयोग उनके समकालीन तो क्या, हिंदी के और संभवत: भारतीय भाषाओं के किसी और साहित्यकार ने नहीं किया.लेकिन सत्यार्थी जी की कहानियों का महत्त्व केवल लोक-तत्वों के कारण नहीं है और न यहां लोक-तत्त्व इकहरे रूप में आए हैं. खास बात यह है कि उनके यहां लोकचेतना और सामाजिक यथार्थ मिलकर या एकरूप होकर जिस तरह सामने आते हैं, उससे पूरी कहानी एक गहरी प्रतीकात्मकता के साथ आलोकित हो उठती है. 'अन्नदेवता' इस लिहाज से सत्यार्थी जी की सबसे अलग और याद रह जाने वाली कहानियों में से है. इसमें एक ओर भूख और अकाल की मार से कराहते गोंड युवक चिंतू और उसकी पत्नी हल्दी की वेदना है, तो दूसरी ओर समय के साथ बदल गए 'अन्न देवता' की ढिठाई और निष्ठुरता की कहानी, और ये दोनों कहानियां समांतर चलती हैं. कहानी में भूख और अकाल का इतना मर्मस्पर्शी चित्रण है कि वह पूरा का पूरा दौर आँखों के आगे आ जाता है, जब मुट्ठी भर अन्न के लिए लोग बेबस होकर गुहार कर रहे थे और गली-गली मृत्यु का तांडव हो रहा था. ऐसे भीषण दौर में जरा चिंतू की हालत देखिए-
"चिंतू ने फटी-फटी आंखों से अपनी पत्नी की ओर देखा. ऐसा भयानक अकाल उसने अपनी जिंदगी में पहली बार देखा था. धरती इस प्रकार बंजर हो गई थी जैसे स्त्री बांझ हो जाए या किसी नन्हे की माँ की छाती सूख जाए."
उधर हल्दी की हालत यह कि देखते ही देखते उसका सारा आनंद और यौवन रस झुलस गया. एक विचित्र बेबसी उसकी आँखों में है और उसे यह कतई समझ में नहीं आ रहा कि इतनी मन्नतें मानने के बावजूद आखिर अन्न देवता क्यों नाराज हो गया है-
"प्रति वर्ष हल्दी अन्न देव की मन्नत मानती थी. एक हल्दी पर ही बस नहीं, प्रत्येक गोंड स्त्री यह मन्नत मानना आवश्यक समझती है. पर इस वर्ष देवता ने एक न सुनी.
किस बात ने देवता को क्रुद्ध कर दिया है? क्रोध तो और देवताओं को भी आता है, पर अन्न देव को तो क्रोध नहीं करना चाहिए."
इस अकाल ने हल्दी की सारी सुंदरता छीन ली. चिंतू अपनी तरुणाई में ही एक सूखे पेड़ सरीखा लग रहा था, जिसमें कोई उत्साह की चमक नहीं थी. ऐसे में बैसाखू का भाई रामू आया तो कुछ उम्मीद बँधी. रामू बंबई में रहकर ठीक-ठाक कमाने लगा था. लेकिन गांव वालों की हालत देखकर उसका मन भी दुखी था. हल्दी का सवाल सुनकर उसके मुँह से जो शब्द निकले, वे गौर करने लायक हैं, "हां, हल्दी! अन्न देवता अब बंबई के महलों में रहता है...रुपयों में खेलता है...बंबई में, हल्दी, जहां तुमसे कहीं सुंदर स्त्रियां रहती हैं...!"
बेशक रामू की इस बात में बहुत गहरा और काटता हुआ व्यंग्य है. बदलते समय और मनुष्य की दारुण स्थितियों ने उसकी आश्था और विश्वास को किस तरह झिंझोड़ दिया है, इसका पूरा चित्र इस संवाद में खुल पड़ता है. यह दीगर बात है कि हल्दी को अब भी अपने अन्न देवता पर भरोसा है, और इस बात पर भी कि कभी न कभी तो ये हालात बदलेंगे. अलबत्ता, यह इस कहानी की शक्ति ही है कि इतने बरसों बाद भी इसके प्रभाव की गिरफ्त से बच पाना कठिन लगता है.
इसके अलावा सत्यार्थी जी की कहानियों की एक बड़ी खासियत यह है कि वे अपनी कहानी में चौंकाते कहीं नहीं हैं. छोटी-छोटी घटनाओं में गहरा रंग भर देना उन्हें आता है. दो-तीन पात्रों की गहरी, सघन बातचीत के जरिए यथार्थ को उघाड़ते चलना सत्यार्थी जी की प्रमुख शैली है. 'टिकुली खो गई' सरीखी उनकी कहानियां इसी अंदाज में लिखी गई काफी हलकी-फुलकी लेकिन पुरअसर कहानियां हैं, जो पाठकों के दिलों में उतरती और उन्हें रसमग्न कर देती हैं. कहीं वर्णन के जरिए तो कहीं लोकगीतों, लोककथाओं आदि के जरिए किसी बड़े संदर्भ को वे एकाएक ऐसे उभार देते हैं कि चमत्कृत रह जाना पड़ता है.
सत्यार्थी जी की कहानियों में विषयों की विविधता भी कम चकित नहीं करती. उनके यहां भूख, गरीबी और युद्धों की विभीषिका का चित्रण है तो प्रेम और यौवन का रस-उल्लास भी है. पारिवारिकता और दांपत्य का रस है, तो प्रकृति का मुक्त उल्लास और विस्मयकारी छवियां भी हैं. एक ओर जीवन की बेबसी, निराशा और विषाद का चित्रण है तो दूसरी ओर बच्चों का निश्छल, अबोध संसार भी वहां किलकता नजर आ जाता है. इसी तरह उनके यहां शहरी आधुनिकता के दृश्य हैं तो गांव की जिंदगी का कठोर यथार्थ और आदिवासी जीवन की विचित्र विडंबनाएं भी नजर आ जाती हैं.
यहां तक कि मानव-मन की अबूझ जिज्ञासाओं को थाहने की कोशिश में उनकी कहानियां किसी अज्ञात मन:लोक या अवचेतन संसार की ओर भी बढ़ने लगती हैं और इस दिशा में भी बहुत कुछ नया-नया लेकर आती हैं. 'पिकनिक', 'कुलफी' और 'ऑटोग्राफ बुक' सरीखी एकदम अलग विषयों पर लिखी गई सत्यार्थी जी की नवोन्मेषी कहानियों कुछ-कुछ इसी ढंग की हैं जो बाहर से ज्यादा भीतर की दुनिया की ओर इशारा करती हैं.
सत्यार्थी जी ने एक खास रंग-ढंग वाली प्रेम कहानियां भले ही न लिखी हों, लेकिन उनके कथा-संसार में प्रेम की कमी नहीं है. हवाओं में धीरे-धीरे गहराता देहराग या कहें शरीर की मंद आंच उनकी 'ब्रह्मचारी', 'दसौधासिंह' जैसी कहानियों में है और उनके कथा-संसार में ऐंद्रिय अनुभवों की मांसलता और सौंदर्य की मादकता के रंग बिखरेती इन कहानियों का अलग ही स्थान है. 'ब्रह्मचारी' कहानी में पहलगांव की यात्रा में मिली युवती सूरजकुमारी की अपूर्व सुंदरता का कैसा मोहक चित्रण है -
"सूरजकुमारी की मुसकान कितनी मोहिनी थी. वह कालिदास की किसी शृंगार-रस की कविता के समान थी, जिसमें शब्द एक से अधिक अर्थ प्रस्तुत करते हैं. मेरी समझ में यही बात आई कि उसकी मुसकान जयचंद और जियालाल के लिए नहीं, बल्कि मेरे लिए है."
उस रात सपने में रूपमुग्धा सूरजकुमारी को देखकर नायक के भीतर भावों की जो आंधी चल पड़ती है, उसका भी बहुत स्वाभाविक चित्रण इस कहानी में है -
"क्या सचमुच मैं वह दीया हूं जिसका तेल कभी समाप्त नहीं होता, जिसकी बाती कभी बुझती नहीं? क्या नारी माया है? सूरजकुमारी भी माया है? उसकी बांहों की गरमजोशी, उसकी लंबी-लंबी पलकें और उसके उभरे हुए गाल, क्या यह सब माया है? इस प्यार से भगवान रूठते हैं तो रूठ जाएं. यह बात थी तो सौंदर्य न बनाया होता, यह भावना न दी होती."
इस कहानी का अंत भी बहुत भावनात्मक और नाटकीय है, जो पाठकों के मन में एक मीठी हिलोर सी पैदा करता है.
इसी तरह 'सोनागाची' एक वेश्या के जीवन पर लिखी गई उनकी अद्भुत संवेदनात्मक कहानी है, जिसमें उस वेश्या की भूख और करुण विवशता बार-बार छलछला उठती है. वेश्याओं पर लिखी गई मांसल कहानियों से सत्यार्थी जी की इस गहन संवेदनात्मक कहानी का स्वर एकदम अलग है.
यहां एक कहानीकार के रूप में सत्यार्थी जी की बारीक अभिव्यंजना और गहरा शब्द-संयम देखते ही बनता है. इससे शब्द मानो इशारे में अपनी बात कहते चलते हैं और शब्दों के बीच छूटे मौन के जरिए बहुत कुछ व्यंजित कर दिया गया है.
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सत्यार्थी जी के कथा-संसार में वे कहानियां अलग से रेखांकित की जा सकती हैं जो उन्होंने अपनी बेटी कविता की मृत्यु के मार्मिक आघात को लेकर लिखी हैं, 'विषपान की बेला', 'कंचनमाटी', 'बरगद बाबा' ऐसी ही कहानियां हैं जिनमें सत्यार्थी जी की अंत:करुणा ही नहीं, उनका गहरा शब्द-संयम भी देखने लायक है. कविता के दुख ने उन्हें झिंझोड़कर रख दिया. यहां तक कि उनका पूरा जीवन मानो अस्त-व्यस्त हो गया, भूकंप से दरहम-बरहम किसी ऐतिहासिक इमारत की तरह. कहानी के शब्दों में भी वह दारुण वेदना एक करुण चीख के रूप में नजर आ सकती है, पर वह आहिस्ता-आहिस्ता उठती है और कहानी पूरी होते-होते दिल-दिमाग पर छा जाती है.एक बार सत्यार्थी जी से उनकी प्रिय कहानियों के बारे पूछा गया तो उनका कहना था, "मुश्किल...बहुत मुश्किल है जवाब देना!" कहते-कहते उनके माथे की लकीरें थोड़ी सिकुड़ीं. फिर कुछ क्षण सोचने के बाद उन्होंने मेरे हाथ में पकड़े कलम और कागज-पत्तर की ओर इशारा करते हुए कहा -
"अच्छा, लिख लीजिए, 'चाय का रंग', 'कबरों के बीचोबीच', 'नए देवता', 'जन्मभूमि', 'ब्रह्मचारी'. एक कहानी 'टिकुली खो गई' भी मुझे पसंद है जो हो सकता है, औरों को एक कहानी नहीं, गुफ्तगू ही लगे. हां, एक और कहानी 'शबनमा' भी लिख लीजिए, जो एक वेश्या पर लिखी गई है.इस कहानी की शुरुआत की लोगों ने बहुत तारीफ की थी. कहानी का उठान इस वाक्य से होता है, 'चकले में रात जरा कुछ पहले ही उतर आती है...!' बाद की कहानियां में 'दसौंधा सिंह' मुझे प्रिय है. यह पाकिस्तान की मशहूर पत्रिका 'नकूश' में छपी थी और वहां इसे खूब पसंद किया गया था. एक और कहानी 'जंगल-जंगल' भी मुझे प्रिय है. इसे राजेंद्र यादव ने 'हंस' में छापा था. यह भी मेरी पसंदीदा कहानी है, हालाँकि यह आपबीती ही है. और कहानी की जब चर्चा हो ही रही है तो आप एक बात मेरी ओर से जरूर लिख लें कि सिर्फ आप ही कहानी को बनाते नहीं हैं, कहानी भी आपको कुछ न कुछ बनाती जरूर है! आप चाहें तो मेरी पहली कहानी 'कुंगपोश' से लेकर 'जंगल-जंगल' और 'नाना जी दंदे' तक की सारी कहानियों को इस बात की गवाही में पेश कर सकते हैं."
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सत्यार्थी जी की कहानियों की चर्चा चलने पर उनकी असफलताओं की चर्चा भी जरूर की जानी चाहिए. बेशक सत्यार्थी जी की बहुत-सी कहानियां बिखरी-बिखरी सी कहानियां लगती हैं. कई बार वे बहुत अधिक फैलती जाती है और लगता है, हर शब्द दूसरे शब्द से, हर पंक्ति दूसरी पंक्ति से अलग हो गई है. और पता नहीं, सत्यार्थी जी कहना क्या चाहते हैं! पर शिद्दत से पीछा करें तो बहुत बार ये कहानियां अपना बारीक-बारीककर अर्थ खोलती हैं. तब समझ में आता है कि एक बड़े साहित्यकार की महान असफलताएँ भी साहित्य में एक दस्तावेजी महत्त्व रखती हैं.फिर सत्यार्थी जी की कहानियों की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे किसी खास रूप-रंग या 'फॉर्मेट' में ढली कहानियां नहीं हैं. वे आलीशान बंगले में रखे खूबसूरत गमले की तरह कटी-तराशी कहानियां नहीं, आदिम जंगल की तरह फैलती और नित नए-नए रूपों में ढलती कहानियां हैं. जैसे जिंदगी का कोई एक बना-बनाया रूप नहीं है, ऐसे ही सत्यार्थी जी की कहानियां हर बार नए-नए दमदार रूपों में सामने आती हैं और उनमें बसी धरती और खानाबदोशी की गंध हमारे दिलों में छा जाती है. तब लगता है, ये कहानियां सिर्फ एक लोकयात्री की कहानियां ही हो सकती हैं, जिसने धरती को बड़ी शिद्दत से प्यार किया है और जिंदगी के नए-नए रूपों की तरह अपनी कहानियों को भी नित नए-नए रूपों में सामने आने के लिए खुला छोड़ दिया है.
यही वजह है कि सत्यार्थी जी की कहानियां औरों से इतनी अलग हैं और वे बीसवीं शताब्दी के समूचे इतिहास और लोक जीवन को अपने आप में समोए, अपने समय के अनमोल दस्तावेज सरीखी हैं. यह अकारण नहीं है कि एक दिग्गज कथाकार के रूप में सत्यार्थी जी आज हमें बार-बार याद आते हैं और उनकी कहानियों को पढ़ना अपने समय और इतिहास की गूँजती आवाजों को सुनने की मानिंद है.
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स्वामी विवेकानंद संन्यासी होते हुए भी किसी वीर योद्धा की तरह भारत को पतन और निराशा के गर्त से बचाने के लिए रात-दिन संघर्ष कर रहे थे.
उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के संधि-काल में भारत के जिन तेजस्वी व्यक्तित्वों ने देश के गौरव को कीर्ति-शिखरों तक पहुंचाया और भारतीय जनता की सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्राण-पण से प्रयत्न किया, उनमें वीर संन्यासी विवेकानंद (12 जनवरी, 1863-4 जुलाई, 1902) सबसे अलग और विलक्षण हैं. ऐसा ओज, ऐसी भव्यता और धज कि उनके निकट जाने पर वे पहली बार में ही मोह लेते हैं.
आप विवेकानंद को पढ़ते हैं और विवेकानंद आपके भीतर उतरने लगते हैं, आपको अंशतः विवेकानंद बनाते हुए. लगता है, भारत को ऐसा ही सतेज व्यक्तित्व और ऐसी ही ओजस्वी वाणी चाहिए, पिछली भूलों और नैराश्यपूर्ण इतिहास की लंबी नींद से जगाने के लिए. सच तो यह है कि पिछले हजार वर्षों में भारत में ऐसा तेजस्वी चिंतक कोई और नहीं हुआ. उनका व्यक्तित्व ऐसा था, जैसे विवेकानंद कोई व्यक्ति न हों, बल्कि ऐसा एक राष्ट्र-प्रतीक, सैकड़ों धधकती बिजलियां जिनमें समा गई हों. और इसीलिए उनके शब्द भीतर से हमें जगाते और कई बार नींद से झिंझोड़ते हुए-से लगते हैं.
विवेकानंद का मतलब ही है, जागृति. उनके हर शब्द से मानो एक ही गूंज उठती है- 'उत्तिष्ठित जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत'. और इसीलिए निराशा और गुलामी के अंधेरे में सोए देश को जगाने में जितना काम अकेले विवेकानंद ने किया, उतना सैकड़ों लोग मिलकर भी नहीं कर सके. पूरी बीसवीं शताब्दी में उन जैसा सतेज कोई दूसरा व्यक्ति नहीं दिखाई देता, जिसका भारतीय जन-मानस पर इतना गहरा और व्यापक असर पड़ा हो.
यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि विवेकानंद संन्यासी होते हुए भी किसी वीर योद्धा की तरह भारत को पतन और निराशा के गर्त से बचाने के लिए रात-दिन संघर्ष कर रहे थे. उनकी तुलना किसी संन्यासी से नहीं, घोर तिमिर की बेड़ियों को काटने के लिए शर-संधान करते धनुर्धर अर्जुन से की जानी चाहिए. उन्होंने पराधीन जनता के सामने एक ऐसा आदर्श रखा कि पूरे भारत में जागृति और स्वाभिमान की एक नई लहर दिखाई पड़ने लगी. धर्म और अध्यात्म को उन्होंने निष्क्रिय साधना की अंतःगुहाओं से निकालकर मानव-सेवा के आदर्श में बदला और देखते ही देखते विवेकानंद जातीय पुनर्जागरण के अग्रदूत बन गए. उनका नाम लेते ही जैसे छाती चौड़ी होती है और हम अपने पूर्णत्व का अहसास करने लगते हैं.
विवेकानंद, यानी नरेंद्रनाथ दत्त. शिकागो जाने के लिए वे जहाज पर बैठे, उससे कुछ समय पहले ही वे विवेकानंद हुए थे और फिर देखते ही देखते विवेकानंद ऐसा नाम हो गया जो घंट-नाद की तरह सारी दुनिया में बजने लगा. धर्म का चिंतन-मनन और प्रवचन करने वाले हैरान थे. उनके देखते ही देखते रंगमंच पर एक ऐसे जादुई व्यक्ति का प्रादुर्भाव हुआ जिसने पढ़े-लिखे समाज के साथ ही साधारण से साधारण लोगों पर भी अपना असर डाला और दुनिया उसके पीछे चलती हुई नजर आने लगी.
12 जनवरी, 1863 को कोलकाता (उस समय कलकत्ता) के एक संपन्न परिवार में जनमा ऐसा यह हठीला नरेंद्र बचपन में भी कम चंचल न था. बल्कि कहा जाए कुछ-कुछ उद्धत भी, जिससे मां कभी-कभी झुंझला भी पड़तीं, "मैंने शिव से बालक मांगा था, पर उन्होंने भेज दिया यह उत्पाती!" लेकिन बच्चा बहुत प्रतिभाशाली था. पढ़ने-लिखने में उसकी गहरी रुचि थी और जो कुछ एक बार पढ़ता, उसे झट याद हो जाता था. पिता कलकत्ता के प्रसिद्ध वकील थे और मां भी अत्यंत बुद्धिमती थी, जो नरेंद्र से बेहद प्रेम करतीं थीं. मां-बाप दोनों चाहते थे कि नरेंद्र पढ़-लिखकर कोई ऊंची सरकारी नौकरी करे, पर नरेंद्र का लक्ष्य तो कुछ और ही था. उसके भीतर जीवन को लेकर बड़े सवाल उठ रहे थे और गहरा अंतर्मंथन शुरू हो गया था. बार-बार यह सवाल उसके भीतर चक्कर काटता- 'मैं कौन हूं, मैं क्यों आया हूं, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है?'
पिता की आकस्मिक मृत्यु नरेंद्र के जीवन में एक बज्रपात की तरह थी, जिसके बाद घर का सारा भार उनके कंधों पर आ गया और वे एक मर्मांतक द्वंद्व में फंसे नजर आते हैं. फिर भी दुनियादारी से ज्यादा उनका ध्यान समूचे भारत और भारतीय जनता के पुनरुत्थान पर था और वे लगातार इस पर चितंन-मनन करते थे. भारतीय जनता की मौजूदा हालत देखकर उनका हृदय रो पड़ता था. पर उन्हें कोई सही राह नहीं मिल पा रही थी. उनके भीतर रह-रहकर उठने वाले प्रश्न अनुत्तरित थे और उन्हें लगातार बेचैन करते थे. वे मधुर स्वर में भक्तिगीत गाते तो अनहद नाद में एकदम डूब जाते और सुनने वालों को भी विभोर कर देते. पर उनके भीतर एक बुद्धिवादी चिंतक भी था, जो अपने हर सवाल का तर्कपूर्ण जवाब पाना चाहता था. और यहां वह प्रखर सत्यान्वेषी और बहुत हठीला था.
उन्हीं दिनों विवेकानंद स्वामी रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव में आए. रामकृष्ण परमहंस बड़े विलक्षण संन्यासी थे, जो बस अपने आप और अपनी साधना में ही खोए रहते थे. इसलिए कुछ लोग तो उन्हें अधपागल भी कहते. पर रामकृष्ण ऐसे अद्भुत संन्यासी थे, जिनके लिए इस तरह के मतामत कोई मानी नहीं रखते थे. वे अपने जीवन में सारे मोह और बंधनों से ऊपर उठकर, जीवनमुक्त हो गए थे. सब कुछ त्यागकर वे साधना के उच्चतम सोपानों पर पहुंचे थे, इसीलिए परमहंस कहलाए. यहां तक कि धार्मिक कर्मकांड भी उनके लिए फिजूल थे. चारों तरफ तेजी से उनका प्रभाव फैलता जा रहा था. विद्रोही विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के निकट आए, तो लगा एक चुंबकीय आकर्षण से वे इस अध्यामपुरुष की ओर खिंचते जा रहे हैं. वे चाहकर भी खुद को रोक नहीं पा रहे.
पर विवेकानंद इतनी जल्दी प्रभावित होने वाले न थे. उनके मन में ईश्वर और संसार के स्वरूप को लेकर तरह-तरह के प्रश्न और शंकाएं थीं. ईश्वर है भी या नहीं और अगर है तो क्या सचमुच उसके दर्शन किए जा सकते हैं? वे बार-बार विकल होकर सोचा करते थे. और कई बार तो उन्हें अपने सवालों के जवाब न मिलते, तो वे ईश्वर के अस्तित्व पर ही शंका करने लगते थे और धर्म की बहुत-सी आस्थाओं और धार्मिक प्रतीकों की खिल्ली उड़ाया करते थे. कई बार तो रामकृष्ण परमहंस के सामने ही ऐसी बातें कहते. रामकृष्ण यह देखते, तो हंसकर रह जाते थे. या कभी-कभी कहा करते थे- "अभी समय नहीं आया. समय आएगा, तो तुम इन सबको मानोगे और यह भी जान जाओगे कि तुम कौन हो और किस काम के लिए इस जगत में आए हो?...पर यह जान जाने के बाद तुम्हारे पास अधिक समय नहीं बचेगा और तुम उसी दिव्य शक्ति में मिल जाओगे, जिसका तुम अंश हो."
विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस की बातें बहुत बहकी-बहकी लगतीं. तो भी उनके प्रभाव से वे चाहकर भी मुक्त नहीं हो पाते थे. अब वे रात-दिन यही सोचा करते कि अगर ईश्वर है तो क्या मैं उसके दर्शन कर सकता हूं? क्या कोई है जो मुझे ईश्वर के दर्शन करा सकता हो? उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से यह प्रश्न किया, तो उन्होंने हंसते हुए कहा, ''मैं तुम्हें ईश्वर से मिलवा सकता हूं. तुम उसी प्रकार ईश्वर को देखोगे, जैसे मैं तुम्हें और तुम मुझे देख रहे हो.''कहते-कहते परमहंस ने विवेकानंद को छू दिया. देखते ही देखते एक अलौकिक आनंद की लहर विवेकानंद के सारे शरीर में दौड़ गई और वे रोमांचित हो उठे. उस क्षण उन्हें लगा, मानो सामने खड़े ईश्वर का साक्षात् कर रहे हैं. इसके बाद ऐसे कई अवसर आए जब विवेकानंद ने रामकृष्ण परमहंस की दिव्यता और आध्यात्मिक सिद्धि का अनुभव किया. वे रामकृष्ण परमहंस के शिष्य हो गए.
रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों में विवेकानंद से सबसे अधिक प्रेम करते थे. कहा करते थे कि इसमें दिव्य तेज है और आगे चलकर यह संसार में बहुत बड़ा काम करेगा.
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युवावस्था में विवेकानंद कैसे थे, इस बारे में उनके गुरुभाई स्वामी सारदानंद ने बहुत अचरज भरी बातें लिखी हैं. रामकृष्ण परमहंस से नरेंद्र की बहुत प्रशंसा सुनी तो उन्होंने सोचा, जाकर देखना चाहिए कि आखिर वह नरेंद्र है कैसा? ढूंढ़ने पर उसका पता तो चल गया, पर उसके बारे में ऐसी बातें सुनने को मिलीं कि उनका माथा चकरा गया. उन्होंने जिस-जिस से भी पूछा, उसी ने कंधे उचकाते हुए जवाब दिया, "अरे, वह घमंडी और उद्धत युवक...? उसके बारे में तो कोई बात न की जाए यही अच्छा है."स्वामी सारदानंद को बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस युवक के बारे में गुरुदेव इतनी प्रशंसा भरी बातें कहते हैं, उसके बारे में तो लोग ऐसी उलटी-सीधी बातें कहते हैं. कहीं गुरुदेव को भ्रांति तो नहीं हो गई? उन्होंने जाकर रामकृष्ण परमहंस से जाकर कहा तो वे बोले कि लोग उसे नहीं जानते, इसलिए ऐसी बातें कहते हैं. फिर नरेंद्र की प्रशंसा करते हुए कहा-
"वह पढ़ाई-लिखाई में, बातचीत में और धर्म-विषय में- सभी बातों में एक समान होशियार है. ध्यान करने बैठता है, तो रात बीत जाती है और सवेरा हो जाता है, फिर भी उसे सुध नहीं आती और उसका ध्यान समाप्त नहीं होता. हमारा नरेंद्र तो खरा सिक्का है, बजाकर देखो, कैसा खन-खन बोलता है." (श्री नरहर रामचंद्र परांजपे, श्रीरामकृष्ण लीलामृत, पृष्ठ 415)
नरेंद्र के भीतर जो असीम शक्ति और दिव्यत्व था, उसे मानो वे अपनी आंखों से साफ-साफ देख रहे थे. इसीलिए नरेंद्र से मिलने के लिए वे इतने विकल रहा करते थे कि बहुत दिनों तक दिखाई न पड़े, तो वे खुद उसे ढूंढ़ने निकल पड़ते थे. एक बार तो जब नरेंद्र बहुत दिनों तक नहीं आया, तो वे ब्रह्मसमाज की बैठक में जा पहुंचे जहां नरेंद्र कोई भक्तिगीत गा रहे थे. भजन सुनकर रामकृष्ण परमहंस इस कदर आविष्ट हुए कि वे धीरे-धीरे उसी ओर बढ़ने लगे, जहां नरेंद्र भजनमंडली के बीच बैठकर गा रहा था. और फिर हालत यह हुई कि खड़े-खड़े ही परमहंस जी की समाधि लग गई.
ब्रह्मसमाज की उस सभा में आए सभी लोग उत्सुक होकर उनके आसपास इकट्ठे हो गए और अचरज से उन्हें देख रहे थे. और फिर जैसा होना ही था, उस दिन की ब्रह्मसमाज की बैठक स्थगित कर दी गई. बाद में नरेंद्र गुरु के निकट पहुंचा तो स्वयं को अपराध-बोध से ग्रस्त पा रहा था. उसके मन में इस बात के लिए तीव्र ग्लानि थी कि उसके कारण रामकृष्ण परमहंस को उसे ढूंढ़ने के लिए यहां आना पड़ा!पर रामकृष्ण परमहंस को भला इस सबकी क्या परवाह? वे तो नरेंद्र से मिलकर मगन थे. नरेंद्र में छिपे हुए तेजपुंज को उन्होंने पहचान लिया था. हालांकि नरेन्द्र अभी तक नहीं समझ पाता था. उसे हैरानी होती. कई बार लगता, मेरे प्रति अतिरिक्त मोह के कारण ही गुरु जी ऐसा कह रहे हैं. एक बार की बात, ब्रह्म समाज के केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी आदि प्रमुख लोग रामकृष्ण परमहंस से मिलने आए. वे रामकृष्ण का उपदेश सुन रहे थे. सामने ही नरेंद्र भी बैठा था. अचानक परमहंस का ध्यान नरेन्द्र की ओर चला गया और वे मुग्ध होकर उसे देखते रहे. बाद में भावपूर्ण स्वर में बोले-
"देखा कि जिस एक शक्ति के उत्कर्ष के कारण केशव जगद्विख्यात हुआ है, वैसी अठारह शक्तियों का नरेंद्र में पूर्ण उत्कर्ष हुआ है. और यह भी दिखा कि विजय और केशव के हृदय में दीपक की ज्योति के समान ज्ञान है, परंतु नरेंद्र के हृदय में प्रत्यक्ष ज्ञानसूर्य ही उदित हो गया है."
नरेन्द्र को सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ. उसने अविश्वास से कहा, "महाराज यह क्या कह रहे हैं? ये इतने ख्यात लोग हैं, मैं भला इनके सामने क्या हूं!"
सुनकर हंसने लगे. बोले, "मैं स्वयं थोड़े ही कहता हूं. मां जगदंबा मुझे जैसा दिखाती हैं, वैसा बोलता हूं." (वही, पृष्ठ 417)
शुरू में विवेकानंद रामकृष्ण के सामने उनके विश्वासों की खिल्ली उड़ाते, तो भी वे कुछ कहते नहीं थे हंसकर टाल जाते थे. और कहते थे, "समय आएगा, जब तू स्वयं कहेगा और मानेगा भी."और वह समय आया, जब वे अपने जीवन के सबसे दुखद मोड़ पर थे. पिता के निधन पर अचानक जिम्मेदारियों का बड़ा बोझ उनके कंधों पर आ गया, पर मन उनका दूसरी ओर दौड़ रहा था. तो भला वे क्या करें?...उनके जीवन की धारा तो जैसे दूसरी ओर मुड़ गई थी, पर घर की जिम्मेदारियों का क्या करें? मां और छोटे भाई-बहन सब उन पर अवलंबित थे.
उन्होंने नौकरी तलाशने की कोशिश की, पर उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी. सारे दिन पैदल यहां से वहां चक्कर काटते, पर हर जगह निराशा हाथ लगती. सारे प्रयत्न निष्फल हो चुके थे. सारा दिन नौकरी की तलाश में यहां से वहां भटकते हुए पैरों में छाले पड़ गए थे और मन में घोर निराशा थी. घर की आर्थिक हालत इतनी जर्जर थी कि कई बार बिलकुल खाने को न होता, सभी को भूखा रहना पड़ता. अकसर विवेकानंद चुपके से रसोई में जाकर झांक लेते. अगर सबके खाने के लिए पर्याप्त भोजन न होता, तो कह देते कि आज उन्हें कहीं बाहर भोजन के लिए जाना है, और चुपचाप घर से निकल जाते, ताकि घर के दूसरे लोगों को पेट भर खाना मिल सके.
ऐसे ही एक दिन जब वे नौकरी की तलाश में यहां-वहां भटकते हुए उनके पैरों में फफोले पड़ गए. बुरी तरह थककर आराम करने के लिए वे एक मीनार की छाया में लेट गए, तो उनके एक मित्र ने 'दीनानाथ दयालु दयानिधि हरें सभी दुख तेरे' भजन गाकर उनका मन हलका करना चाहा. पर नरेंद्र ने जैसे क्रोधावेश में कहा, "बस, बस, बंद कर." यह गीत नरेंद्र का प्रिय गीत था, पर इस प्रत्यक्ष विपत्ति के आ पड़ने पर कठोर सत्य के सामने गीत के शब्द उन्हें अपना उपहास करते प्रतीत हुए. लगा कि अगर ईश्वर इतना ही दयालु है, तो भला संसार में इतने दुख, दारिद्र और कष्ट क्यों हैं?
मित्र स्तब्ध! वह भला नरेंद्र के मन की हालत कैसे समझ सकता था, जो आस्था-अनास्था के गहरे द्वंद्व में फंसा था और सोच रहा था कि अगर ईश्वर दुख में लोगों की मदद नहीं करता तो उस ईश्वर के होने न होने से फर्क ही क्या पड़ता है?इस दारुण दुख की घड़ी में अचानक एक दिन उन्हें जगदंबा का ध्यान आया. सब ओर से ठोकरें खाया मन उन्हें मानो जगदंबा के दरबार में खींचकर ले जा रहा था, पर अभी हिचक बाकी थी. पता नहीं जगदंबा उनकी बात सुनें या न सुनें, पर परमहंस की बात तो वे जरूर मानेंगी. उसी समय उनके मन में आया कि अगर परमहंस जी कहें तो मां जगदंबा जरूर कुछ सहायता करेंगी. उन्होंने जाकर रामकृष्ण परमहंस से यह कहा. सुनकर वे बोले, "मैं कहूंगा, पर ऐसी बातें मुझसे कही नहीं जातीं. तू खुद क्यों नहीं कहता?"
उन्होंने नरेंद्र को जगदंबा के दरबार में भेजा. पर मां के मंदिर में जाते ही वे इस कदर ध्यानमग्न हो गए कि उन्हें कुछ कहना याद ही नहीं रहा. रामकृष्ण परमहंस ने दोबारा भेजा, तब भी नरेंद्र की यही हालत हुई. यहां तक कि तीसरी बार गए, तब भी वे मां जगदंबा से कुछ मांग नहीं पाए.
लौटकर नरेंद्र ने गुरु से कहा कि उन्हें तो परिवार के लिए कुछ मांगने की बात याद ही नहीं रही. इस पर परमहंस हंसकर बोले, "देख ले, इतने बड़े दरबार में इतनी छोटी बात क्या कही जा सकती है?" फिर विवेकानंद को व्यग्र देखकर उन्होंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा, "ठीक है, आज से तेरे घर मोटे अनाज और वस्त्र की कमी न रहेगी."और सचमुच हुआ भी यही. नरेंद्र को नौकरी मिली और फिर घर की हालत भी धीरे-धीरे सुधरने लगी.
पर विवेकानंद इसके लिए तो बने नहीं थे. उनका मन तो तेजी से अध्यात्म की ओर खिंच रहा था. उन्होंने जिस तीव्र चुंबकीय शक्ति की अनुभूति कर ली थी, उसके घेरे से निकल पाना क्या आसान था. लग रहा था, जिन सवालों के जवाब वे खोज रहे थे, वे अब मिल रहे थे. उनका इस जीवन में आने का प्रयोजन क्या है, कुछ-कुछ वे समझने लगे थे. बहुत मुश्किल से उनके विद्रोही मन ने जगदंबा को माना था. पर जब माना तो कुछ और उनके ध्यान में टिकता ही न था. रामकृष्ण परमहंस इस बात से इतने अधिक आनंदित थे कि जो भी उनसे मिलने जाते, उससे बस एक ही बात कहते, "नरेंद्र ने जगदंबा को मान लिया...!" मानो अब उन्हें वह सब बिलकुल साफ नजर आने लगा था, जिसको पहले उन्होंने ध्यान में देखा था.
विवेकानंद अपने गुरुभाइयों के साथ ध्यान में बैठते थे. एक दिन उन्होंने परमहंस जी से कहा, "महाराज, मुझे निर्विकल्प समाधि का सुख अभी तक नहीं मिला."इस पर रामकृष्ण बोले, "मैं क्या कर सकता हूं?...मां की जैसी इच्छा होगी, वैसा होगा."
और फिर एक दिन नरेंद्र जब अपने गुरुभाइयों के साथ ध्यान करने बैठा, तो उसकी ऐसी गहन समाधि लग गई कि देह का कोई बोध ही नहीं रहा. उसके गुरुभाई अचरज से यह देख रहे थे. उन्होंने जाकर परमहंस से कहा. वे बोले, "ठीक है, वह बहुत समय से मुझे तंग कर रहा था."
बहुत देर बाद जब विवेकानंद को देहभान हुआ, तो उनकी आंखों से अश्रु बह रहे थे. तन-मन आनंदविभोर था. वे दौड़े-दौड़े रामकृष्ण के पास पहुंचे. रामकृष्ण परमहंस उनकी अवस्था देखकर ही सब जान गए. बोले, "अब मां ने तुझे सब कुछ दिखा दिया है और तेरे दरवाजे की चाबी मुझे दे दी है!..."
सन् 1886 में रामकृष्ण परमहंस की अनंत समाधि के बाद विवेकानंद ने अपने गुरुभाइयों के साथ मिलकर उनके अधूरे कामों को पूरा करने और उनके उपदेशों को दूर-दूर तक फैलाने का जिम्मा संभाला. उन्होंने सारे भारत में भ्रमण किया. उससे घोर गरीबी में भी गहरी ईश्वरीय आस्था के साथ जीने वाली भारत की सीधी-सादी जनता को उन्हें निकट से देखने और समझने का अवसर मिला. देश के असंख्य लोगों के दुख, गरीबी और उत्पीड़न को निकट से महसूस करके वे विचलित हो उठे. वे सोचते थे कि सच्चा अध्यात्म तो यह है कि कोटि-कोटि जनता के दुखों को दूर किया जाए.
स्वयं विवेकानंद संन्यास ग्रहण करके लोकसेवा के जिस पथ पर वे चले, वह कम कष्टों भरा न था. वे जगह-जगह जाकर लोगों से मिलते. उन्हें सच्चे अध्यात्म की राह बताते. लोग जो कुछ रूखा-सूखा देते, वह खा लेते. कभी-कभी तो हालत यह होती कि सूखी रोटी तक नहीं मिल पाती थी. और कभी ऐसी रोटियां भी मिलतीं कि पानी में डालने पर थोड़ी नरम हों, तभी खाई जा सकती थीं. पर संन्यासी विवेकानंद इसे भी अपने लोगों का प्रेम-उपहार मानकर प्रसन्नता से ग्रहण करते. दूसरी ओर बहुत स्थानों पर राजा-महाराजा और संपन्न वर्ग के ऐसे उदार और चेतनासंपन्न लोग भी मिलते, जो उन्हें सम्मान से आमंत्रित करते और उनकी बातों से बहुत प्रभावित होते. समय आने पर ऐसे इस तरह के उदार और संवेदनशील लोगों ने उनकी बहुत मदद भी की.
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सन् 1893 में शिकागो में आयोजित सर्वधर्म महासभा मानो ऐसा रंगमंच था, जिसमें विवेकानंद को अपनी संपूर्ण कलाओं और भास्वर तेजस्विता के साथ पूरी दुनिया के आगे आना था. इस विश्व धर्म महासभा का पता चला, तो विवेकानंद उसमें भाग लेने पहुंचे. खेतड़ी के महाराजा ने उन्हें जहाज का टिकट खरीदकर दिया. साथ ही विवेकानंद की अनिच्छा के बावजूद उन्होंने एक रेशमी गैरिक चोगा भी सिलवाकर दिया, जो शिकागो में सभी के आकर्षण का केंद्र बना. हालांकि विवेकानंद शिकागो पहुंचे, तो हड्डियों तक को कंपकंपाने वाली जिस सर्दी से उनका सामना हुआ, उसका उन्हें कतई अंदाजा नहीं था और न उससे बचने का कोई साधन उनके पास था. बड़ी मुश्किल से सड़क के किनारे पड़े एक बड़े से पाइप में छिपकर उन्होंने जान बचाई.
यहां तक कि विश्व धर्म महासभा कब होनी है, इसकी सही तारीख का भी उन्हें ध्यान नहीं था. शिकागो पहुंचकर उन्हें पता चला कि अभी तो उसमें समय है और वे काफी पहले आ गए हैं. एक मुश्किल यह थी कि प्रतिनिधियों के लिए पंजीकरण की तारीख निकल चुकी थी. और दूसरी बड़ी परेशानी यह थी कि सिर्फ वही वक्ता इस विश्व धर्म महासभा में हिस्सा ले सकते थे, जिन्हें किसी धार्मिक संस्था ने अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा हो. विवेकानंद ने इस बारे में तो सोचा ही नहीं था और न उन्हें यह जानकारी थी. उन्होंने मद्रास पत्र लिखा, ताकि वहां की एक धार्मिक संस्था से यह पत्र हासिल कर सकें कि विवेकानंद वहां उसका प्रतिनिधित्व करेंगे. हालांकि मुसीबत ने यहां भी उनका साथ नहीं छोड़ा. इसलिए कि जिस संस्था से पत्र भेजने के लिए अनुरोध गया था, उसके अधिकारी बेहद दंभी निकले और सारी बात पता चलने पर उसके प्रधान के मुंह से निकला, "उस शैतान को ठंड खाकर मर जाने दो." (रोमां रोलां, विवेकानंद की जीवनी, पृष्ठ 30)
इस अनिश्चय की अवस्था में विवेकानंद बोस्टन घूमने चले गए. रेलगाड़ी में मिली एक भली महिला से उनका परिचय हुआ, जिनके पति जे. एच. राइट हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे. उन्होंने विवेकानंद को अपने घर आमंत्रित किया. प्रोफेसर राइट विवेकानंद के विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सर्व धर्म सम्मेलन की समिति को पत्र लिखा कि उनकी इच्छा है कि भारत से आया यह तेजस्वी संन्यासी इस सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करे. साथ ही उन्होंने शिकागो के लिए टिकट भी कटा दिया.
पर विवेकानंद शिकागो पहुंचे, तो पता चला कि समिति का पता कहीं खो गया है. गाड़ी भी कुछ देर से पहुंची थी. अब भला वे क्या करें? उन्हें सही-सही राह बताने वाला कोई नहीं था. पूछने पर जगह-जगह अपमानजनक स्थितियां झेलनी पड़ीं. बुरी तरह थककर और परेशान होकर वे एक छोटी-सी गली में बैठ गए और सोच रहे थे कि अब क्या करें? पास ही एक दयालु परिवार रहता था. उन लोगों ने विवेकानंद की वेशभूषा देखकर कुछ अनुमान लगाया और पूछा कि कहीं वे विश्व धर्म महासभा में भाग लेने तो नहीं आए? सारी बात पता चलने पर उन्होंने मदद की और स्वामी जी सम्मेलन में पहुंचे.
पर इस तरह की हताश कर देने वाली घटनाओं के बावजूद विवेकानंद निराश नहीं हुए. आखिर वे भारत जैसे महान और गौरवशाली परंपराओं वाले देश के प्रतिनिधि थे और यह गौरव ऐसा था जिसके आगे बाकी सारी उलझनें और मुश्किलें छोटी थीं.
विश्व धर्म महासभा में पहले ही दिन अपने स्वागत का उत्तर देते हुए उन्होंने जो शब्द कहे, अब वे एक ऐतिहासिक दस्तावेज बन गए हैं. सभी प्रतिनिधि जहां औपचारिक संबोधन से बात शुरू कर रहे थे, वहां स्वामी विवेकानंद की वाणी में छिपी ममता और स्नेह ने पल भर में सभी को अपना बना लिया. देर तक लोग खड़े होकर तालियां बजाते रहे. उस दिन स्वामी विवेकानंद को अपने स्वागत के जवाब में धन्यवाद देना था, और उनके शब्द ऐसे थे, जो वहां उपस्थित हर व्यक्ति के दिल में उतर गए. चंद शब्दों में ही उन्होंने भारत की उस महान परंपरा से सबको परचा दिया, जिसके प्रतिनिधि के रूप में वे वहां उपस्थित थे. उस दिन विवेकानंद के वक्तव्य के आरंभिक शब्द थे-
"अमेरिकावासी बहनो और भाइयो, आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते हुए मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूरित हो रहा है. संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूं, धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूं, और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिंदुओं की ओर से धन्यवाद देता हूं."
फिर उन्होंने 'शिवमहिम्नः स्तोत्रम्' के साथ-साथ गीता का भी एक श्लोक पढ़ा, जिसका भावार्थ है, "जो कोई मेरी ओर आता है- चाहे किसी प्रकार से हो- मैं उसको प्राप्त होता हूं. लोग जो भिन्न-भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हैं, अंत में मेरी ओर आते हैं."
जाहिर है, ये ही वे शब्द थे, जिन्होंने विश्व धर्म महासभा की दशा-दिशा तय कर दी थी. उन्होंने वक्ताओं को विचार और चिंतन की एक ऐसी समन्वयात्मक राह दे दी थी, जिसमें धार्मिक मतभेद और दीवारों को अंततः ढहना ही था, ताकि इस विश्व महासभा से विश्व कल्याण की राह निकले. छूछे शब्दों का कर्मकांड नहीं. विवेकानंद की वाणी में ऐसा तेज था कि उनके शब्द, जो बहुत ही निर्मल मन और सच्चाई से कहे गए थे, लोगों के दिलों में उतरते चले गए. चारों तरफ उनका प्रभाव छा गया. सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो उठे.
फिर उन्होंने हिंदू धर्म के विचारों को लेकर जो गंभीर और गवेषणापूर्ण लेख पढ़ा, उसमें हिंदू धर्म की सभी बुनियादी बातें इतने साफ और प्रभावी रूप में सामने आईं कि यह लेख आज भी 'हिंदू धर्म की एक संपूर्ण व्याख्या' सरीखा लगता है. शायद ही हिंदू धर्म से जुड़ा विचार और चिंतन का कोई महत्त्वपूर्ण पक्ष उनसे छूटा हो.
इस लेख में विवेकानंद जहां हिंदू धर्म की उदारता और विश्व दृष्टि की चर्चा करते हैं, वहां वे उन पक्षों का भी मजबूती से जवाब देते हैं, जिन्हें लेकर मिशनरी और दूसरे लोग लगातार हमले कर रहे थे और बुरी तरह खिल्ली उड़ाते थे. विवेकानंद ने हिंदू धर्म की उस आश्चर्यजनक ग्रहणशीलता और समन्वयात्मक दृष्टि की बहुत सुंदर ढंग से चर्चा की, जिसके कारण हजारों वर्षों से असंख्य चुनौतियों का सामना करने के बावजूद वह चुका नहीं, बल्कि हर बार पहले से बहुत अधिक प्रबल और सतेज होकर सामने आया. यहां तक कि जो आक्रांता बनकर आए, वे भी आगे चलकर इसी में समा गए और हिंदू धर्म ने सभी की अच्छी बातों को उदारता से ग्रहण किया.
इसी तरह वेदों के अनादि होने की बात को उन्होंने बहुत अच्छे ढंग से समझाया. मूर्तिपूजा को लेकर पादरी हिंदू धर्म का बहुत मखौल उड़ाते थे. इस बात की चर्चा करते हुए विवेकानंद भारत के सीधे-सादे लोगों की आस्था के साथ खड़े हो जाते हैं. वे कहते हैं-
"बचपन की एक बात मुझे याद आती है. एक ईसाई पादरी कुछ मनुष्यों की भीड़ जमा करके धर्मोपदेश कर रहा था. बहुतेरी मजेदार बातों के साथ वह पादरी यह भी कह गया- अगर मैं तुम्हारी देवमूर्ति को डंडा लगाऊं तो यह मेरा क्या कर सकती है? एक श्रोता ने झट चुभता-सा जवाब दे डाला- अगर मैं तुम्हारे ईश्वर को गाली दूं तो वह मेरा क्या कर सकता है? पादरी बोला- मरने के बाद वह तुम्हें सजा देगा. हिंदू भी तनकर बोल उठा- तुम मरोगे तो उसी तरह देवमूर्ति भी तुम्हें दंड देगी!"
आगे वे कहते हैं, "जब मूर्तिपूजक कहे जाने वाले लोगों में मैं ऐसे मनुष्यों को पाता हूं जिनकी नैतिकता, आध्यात्मिकता और प्रेम अपना सानी नहीं रखते, तब मैं रुक जाता हूं और अपने से यही पूछता हूं- क्या पाप से भी पवित्रता की सृष्टि हो सकती है?" (विवेकानंद साहित्य संचयन, पृष्ठ 10)
इसी व्याख्यान में आगे मूर्तिपूजा को लेकर मिशनरियों के दुष्प्रचार पर वे कुछ आक्रामक लहजे में कहते हैं-
"एक बात आपको अवश्य बतला दूं. भारतवर्ष में मूर्तिपूजा कोई जघन्य बात नहीं है. न वह व्यभिचार की जननी है. वरन वह अविकसित मन के लिए उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय है. अवश्य हिंदुओं के बहुतेरे दोष हैं, उसके कुछ अपवाद हैं, पर यह ध्यान रखना रखिए कि उसके वे दोष अपने शरीर को ही उत्पीड़ित करने तक सीमित हैं. वे कभी अपने पड़ोसियों का गला नहीं काटने जाते. एक हिंदू धर्मांध भले ही चिता पर अपने को जला डाले, पर वह विधर्मियों को जलाने के लिए 'इक्विजिशन' की अग्नि कभी प्रज्वलित नहीं करेगा. और इस बात के लिए उसके धर्म को उससे अधिक दोषी नहीं ठहराया जा सकता, जितना डाइनों को जलाने का दोष ईसाई धर्म पर मढ़ा जा सकता है." (वही, पृष्ठ 12)
इसी व्याख्यान में विवेकानंद बौद्ध और जैन धर्मों की भी चर्चा करते हैं, जो इसी देश में जनमे और थोड़े मतांतर के बावजूद मूलतः हिंदू धर्म की ही आस्था और विश्वासों को आगे बढ़ाते हैं. विवेकानंद कहते हैं-
"यद्यपि बौद्ध तथा जैन ईश्वर पर निर्भर नहीं करते, तथापि उनके धर्म की पूरी शक्ति प्रत्येक धर्म के महान केंद्रीय सत्य- मनुष्य में ईश्वरत्व के विकास की ओर उन्मुख है. उन्होंने पिता को भले न देखा हो, पर पुत्र को अवश्य देखा है. और जिसने पुत्र को देख लिया, उसने पिता को भी देख लिया." (वही, पृष्ठ 13)
अपने व्याख्यान के अंत में वे अमेरिका और अमेरिकावासियों को संबोधित करते हुए बड़े विश्वासपूर्ण शब्दों में कहते हैं-
"आप ऐसा ही धर्म सामने रखिए और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी हो जाएंगे. अशोक की परिषद बौद्ध परिषद थी. अकबर की परिषद अधिक उपयुक्त होती हुई भी केवल बैठक की ही गोष्ठी थी. किंतु पृथ्वी के कोने-कोने में यह घोषणा करने का गौरव अमेरिका के लिए ही सुरक्षित था कि प्रत्येक धर्म में ईश्वर है." (वही, पृष्ठ 13)
और इस विश्व धर्म महासभा के समापन के समय विवेकानंद ने जो शब्द कहे, वे भी मानो घंटा-नाद की तरह लंबे समय तक दुनिया भर के धर्म चिंतकों को मथते रहे. उन्होंने बड़े ही ओजस्वी शब्दों में कहा—
"इस धर्म महासभा ने जगत के समक्ष यदि कुछ प्रदर्शित किया है तो वह यह है, उसने यह सिद्ध कर दिया है कि कि शुद्धता, पवित्रता और दयाशीलता किसी संप्रदाय विशेष की एकांतिक संपत्ति नहीं है एवं प्रत्येक धर्म ने श्रेष्ठ एवं अतिशय उन्नत चरित्र स्त्री-पुरुषों को जन्म दिया है. अब इन प्रत्यक्ष प्रमाणों के बाद भी यदि कोई ऐसा स्वप्न देखे कि अन्यान्य सारे धर्म नष्ट हो जाएंगे और केवल उसका धर्म ही जीवित रहेगा, तो उस पर मैं अपने हृदय के अंतस्तल से दया करता हूं और उसे स्पष्ट बतलाए देता हूं कि शीघ्र ही सारे प्रतिरोधों के बावजूद, प्रत्येक धर्म की पताका पर यह लिखा रहेगा- सहायता करो, लड़ो मत, परभाव-ग्रहण न कि परभाव-विनाश, समन्वय और शांति, न कि मतभेद और कलह!" (वही, पृष्ठ 17)
स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से भारत के लोगों की सेवा और अध्यात्म के लिए सब कुछ समर्पित करने वाली भगिनी निवेदिता ने विश्व धर्म महासभा में उनके चमत्कारी भाषण के प्रभाव को बड़े काव्यात्मक ढंग से अपने शब्दों में बांधा है. वे कहती हैंँ
"...विश्व धर्म महासभा के सम्मुख स्वामी जी के अभिभाषण के संबंध में यह कहा जा सकता है कि जब उन्होंने अपना भाषण आरंभ किया तो विषय था हिंदुओं के धार्मिक विचार, किंतु जब उऩ्होंने अंत किया, तब तक हिंदू धर्म की सृष्टि हो चुकी थी. इस संभावना के लिए समय भी परिपक्व हो चुका था." (वही, भूमिका, हमारे गुरु और उनका संदेश)
शिकागो की विश्व धर्म सभा में स्वामी विवेकानंद के शब्दों का इतना गहरा असर पड़ा कि अमेरिकी अखबारों ने लिखा, "उन्हें सुनने के बाद हम अनुभव करते हैं कि भारत जैसे ज्ञानी राष्ट्र को मिशनरी भेजना कितनी बड़ी मूर्खता है."
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निश्चय ही यह भारत और भारत के प्रतिनिधि के रूप में स्वामी विवेकानंद की बहुत बड़ी जीत थी.
इसके बाद वे जहां-जहां गए, वहां उनका उत्साह से स्वागत हुआ. देखते ही देखते विवेकानंद भारत के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक अग्रदूत बन गए. जब वे भारत के विलक्षण धर्म और अध्यात्म की बातें बताया करते थे, तो लोग चकित और चमत्कृत होकर उन्हें सुना करते थे. इस तरह पूरे विश्व में उन्होंने यह संदेश दिया कि आज भारत भले ही पराधीनता के कष्ट झेल रहा हो, पर वह एक महान देश है जिसका महान अतीत और एक गौरवशाली इतिहास है. भारत के पास आज भी बहुत कुछ ऐसा बचा हुआ कि सारा संसार शिष्य की तरह उससे बहुत कुछ ले सकता है. दुनिया का उद्धार भारत द्वारा दिखाए गए धर्म और अध्यात्म के पथ पर चलकर ही हो सकता है.
अमेरिका में अब हर ओर विवेकानंद के नाम की धूम थी. उनसे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी. जगह-जगह उनके व्याख्यान आयोजित किए जा रहे थे. पर इस विश्वव्यापी कीर्ति के कारण उन्हें जो अंतहीन आफतें सहनी पड़ीं, उनकी कथा भी अनंत है और बड़ी तकलीफदेह भी. इसलिए कि विवेकानंद की यह प्रशंसा ईसाई मिशनरियों को जरा नहीं सुहाई और उन्होंने ईर्ष्यावश शत्रुता ठान ली. दुख और दर्भाग्य की बात यह कि भारत के बहुत से लोग और धार्मिक संस्थाएं भी ऐसी थीं, जिन्हें विवेकानंद का यह प्रादुर्भाव जरा भी नहीं सुहाया. विवेकानंद ने पूरे भारत का गौरव बढ़ाया था, पर ऐसे लोग उन्हें केवल प्रबल प्रतिस्पर्धी समझ रहे थे और ईर्ष्यालु होकर उनके विरुद्ध झूठा प्रचार और प्रवाद फैलाने में जुट गए थे. इस पर दुखी होकर विवेकानंद ने कहा-
"शायद वर्षों की गुलामी का ही यह असर है कि भारत में चार लोग मिलकर कोई काम नहीं कर सकते. अगर एक कुछ आगे बढ़ेगा तो बाकी तीन उसकी टांग पीछे खींचने में लग जाएंगे."
अलबत्ता, स्वयं देशवासियों द्वारा स्वामी जी के इस अविवेकपूर्ण विरोध से एक अजब-सी भ्रांति का वातावरण बना. विदेशियों को लगने लगा, शायद मिशनरी लोग ही ठीक कह रहे हैं. तभी तो स्वयं भारतीय भी उनके विरोध में हैं. मिशनरी लोग ऐसे लोगों की बातों को दूर-दूर तक प्रचारित करते और कहीं ज्यादा तेजी से अपने निंदा-अभियान में जुट जाते. एक ओर विवेकानंद अंतर्राष्ट्रीय शख्सियत बन चुके थे, दूसरी ओर उनके मार्ग में कंटक और रुकावटें पैदा करने लोग सक्रिय थे. यह एक आश्चर्य की बात थी कि इतने बड़े देश से किसी ने विवेकानंद के विरुद्ध मिशनरियों के झूठे अभियोगों का जवाब देने के लिए एक पत्र तक नहीं लिखा कि विवेकानंद हमारे देश के सम्माननीय प्रतिनिधि है. इन पर इस तरह के झूठे लांछन निंदनीय हैं.
विवेकानंद इससे आहत थे, पर उन्होंने हार नहीं मानी. अविचल भाव से वे अपने कर्म में जुटे थे. उनका कर्मयोगी व्यक्तित्व खुद ही सारे विरोधों का जवाब था. सब तरह के दुष्प्रचारों के बावजूद उनके व्यक्तित्व की 'समुज्ज्वला प्रभा' कुछ ऐसी थी कि उनकी सच्ची और सीधी ललकार के आगे कुछ ठहरता नहीं था.
विवेकानंद पश्चिम के लोगों से साफ-साफ कहा करते थे कि भारत अध्यात्म में बहुत बढ़ा-चढ़ा है और इस क्षेत्र में उसके पास सारी दुनिया को देने के लिए बहुत कुछ है. दूसरी ओर पश्चिम ने भौतिक तरक्की बहुत की है, जिसकी भारत में कमी है. इसलिए मैं भारत से अध्यात्म यहां लाता हूं और बदले में यहां से धन लेकर वहां जाता हूं, ताकि मेरे देश के लोगों की कुछ सहायता हो सके.
इसी तरह भारत में मिशनरियों को भेजने के प्रति अपनी नाराजगी प्रकट करते हुए उन्होंने कहा, "भूखे को धर्म का उपदेश देने से बढ़कर उसका कोई अपमान नहीं हो सकता. उसको पहले रोटी दो और बाकी बातें बाद के लिए रखो. इसलिए अगर आप लोग भारत की मदद करना ही चाहते हैं, तो वहां मिशनरी भेजने के बजाय धन से उनकी मदद कीजिए."
मद्रास के लोगों द्वारा भेजे गए अभिनंदन का जवाब देते हुए विवेकानंद ने हिंदू धर्म के आगे मौजूद चुनौतियों की ओर उनका ध्यान आकर्षित करते हुए, एक बार फिर ईसाई मिशनरियों के कलुषपूर्ण दुष्प्रचार की ओर उनका ध्यान खींचा. वे लिखते हैं-
"यह बात सच नहीं है कि मैं किसी धर्म का विरोधी हूं. और मैं भारत के ईसाई पादरियों से शत्रुता रखता हूं, यह भी उतना ही असत्य है. परंतु अमेरिका में वे जिस तरीके से चंदे से दान एकत्र करते हैं, उसका मैं अवश्य ही प्रतिवाद करता हूं. बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में ऐसे चित्रों के छापने का क्या मतलब है, जिसमें हिंदू माता अपने बच्चे को गंगा नदी में मगर के मुंह में झोंक रही है. चित्र में माता तो काले रंग की है परंतु बच्चे का रंग गौर रखा गया है, जिससे कि बच्चे के प्रति सहानुभूति अधिक बढ़े और अधिक धन प्राप्त हो. उन चित्रों का भी क्या अर्थ है जिनमें एक मनुष्य अपनी पत्नी को अपने हाथों से एक स्तंभ से बांधकर इसलिए जीवित जला रहा है कि वह मरकर भूत हो जाए और उसके (अपने पति के) शत्रुओं को सताए." (वि.सा.सं., पृष्ठ 290)
अमेरिका की दूसरी यात्रा में ही उनके मन से अमेरिका की पहली छाप मिटने लगी. उसका बाजारवादी चेहरा जगह-जगह उन्हें नजर आता, जहां हर चीज बिकाऊ थी और धर्म भी एक बाजार-सरीखा था. जहां विज्ञापन के नाम पर ऐसी भौंडी बातें कही जाती थीं कि उन्हें ऊब होने लगती. उन्हें व्याख्यान देने के लिए एक संस्था से निमंत्रण मिला. इसके बदले में अच्छी-खासी राशि भी मिलती, जिससे वे भारत के लोगों की सेवा कर सकते थे. कुछ जगह उन्होंने व्याख्यान दिए. पर उन्होंने देखा कि जो लोग उनका व्याख्यान सुनने आते हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे भाव प्रकट करते, जैसे यह भी कोई मजेदार तमाशा हो. ऐसे लोगों के सामने अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों की चर्चा क्या अपमानजनक नहीं है?
विवेकानंद इतने क्रुद्ध हुए कि आवेश में आकर उन्होंने सामने बैठे ऐसे लोगों को खूब खरी-खोटी सुना दी. उन्होंने समृद्धि के नशे में चूर ऐसे लोगों को इस बुरी तरह लताड़ना शुरू कर दिया कि लोग हक्के-बक्के रह गए. वे अभी तक भारत से आए संन्यासी के उस खुद्दार, स्वाभिमानी चेहरे से परिचित नहीं थे, जो अपनी पर आए तो राजा-महाराजाओं को भी फटकार सकता था.
स्वयं विवेकानंद इतने क्षुब्ध थे कि उस व्याख्यान-माला को उन्होंने बीच में ही छोड़ दिया.
हालांकि सौभाग्य से अमेरिका ही नहीं, इंगलैंड, जर्मनी, फ्रांस और दूसरे कई देशों में उनके ऐसे अनुयायी पैदा हो चुके थे, जो उन्हें जी-जान से प्यार करते थे और उन्हें किसी मुक्तिदाता विश्व-दूत से कम नहीं समझते थे. इनमें से बहुत से वहीं रहकर काम करते रहे तो कुछ भारत भी आए और इसी देश को उन्होंने अपनी कर्मभूमि भी बना लिया.
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भारत लौटने के बाद स्वामी विवेकानंद सन् 1897 में अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस के विचारों को फैलाने तथा भारत के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक विकास के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की. हालांकि यहां भी उन्हें एक अजीब स्थिति का सामना करना पड़ा.
विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना के लिए एक स्थान पर आत्मीय जनों और परमहंस के शिष्यों को आमंत्रित किया. उनके सामने उन्होंने एक ऐसी संस्था का विचार रखा जो हर तरह के भेदभावों से ऊपर उठकर सारी दुनिया में अध्यात्म-साधना और मानव-सेवा के लिए काम करे. उनके कुछ गुरुभाइयों को यह बड़ा अजीब लगा. उनका कहना था कि रामकृष्ण परमहंस की साधना तो ऐसी नहीं थी. कहीं ऐसा करके हम उनकी राह से भटक तो नहीं रहे? इस पर विवेकानंद ने उन्हें समझाया कि उनके गुरु रामकृष्म परमहंस की साधना ऊपर से देखने पर एकांतिक भले ही लगे, पर उनके मन में पूरी मानवता का दर्द बसा था, इसलिए यह संस्था केवल धर्म और अध्याम की गतिविधियों तक सीमित न रह कर मानवता की सेवा को अपना लक्ष्य मानेगी. अगर हम दुखी और पीड़ित लोगों की मदद नहीं करते तो हमारे अध्याम की यह एकांत साधना निरी अधूरी और निष्ठुर कही जाएगी.
आखिर विवेकानंद के सब गुरुभाइयों ने इसे माना और रामकृष्ण मिशन की स्थापना हुई. उसमें धर्म और अध्यात्म की साधना के साथ-साथ मानव-सेवा के बड़े उद्देश्य को भी रखा गया. देखते ही देखते उत्साही नवयुवक साथ आए और देश-विदेश में सब ओर रामकृष्ण मिशन की शाखाएं नजर आने लगीं.
स्वामी विवेकानंद ने जगह-जगह घूमकर इस संस्था और इसके पीछे मानवता की सेवा और कल्याण के विचार को फैलाया. वे जनता को बताते कि जब तक हम पूरा बल लगाकर अपनी वर्तमान जड़ता और अंधकार को खत्म नहीं कर लेते, तब तक हमारे अध्यात्म का कोई मोल नहीं है, भले ही वह कितना ही महान क्यों न हो! कई बार वे आविष्ट होकर कहते-
''भारत के नौजवानों को गीता पढ़ने के बजाय फुटबॉल खेलना चाहिए. हमें पश्चिम से सीखना चाहिए कि कैसे उनके जीवन में बिजली की-सी कौंध और तेजी है. हमें भी वह आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता के गुण को अपनाना चाहिए.''
स्वामी जी अध्यात्म और ऐहिक जीवन के बीच वैसी चौड़ी खाई स्वीकार न करते थे, जैसी रूढ़ि बन चुकी थी. उनके भीतर का क्रांतिकारी युग-चिंतक एक नया ही सपना देख रहा था. अपने एक पत्र में स्वामी जी ने रामकृष्ण मिशन से जुड़े बड़े अद्भुत सपने को इन शब्दों में प्रकट किया है-
"हमारे देश में हजारों एकनिष्ठ और त्यागी साधु हैं, जो गांव-गांव धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं. यदि उनमें से कुछ लोगों को ऐहिक विषयों में भी प्रशिक्षित किया जाए, तो गांव-गांव, दरवाजे-दरवाजे जाकर वे केवल धर्म शिक्षा ही नहीं देंगे, बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे. कल्पना कीजिए कि इनमें से एक-दो शाम को साथ में एक मैजिक लैंटर्न, एक ग्लोब और कुछ नक्शे आदि लेकर किसी गांव में गए. इसकी सहायता से वे अनपढ़ लोगों को बहुत कुछ गणित, ज्योतिष और भूगोल सिखा सकते हैं. जितनी जानकारी वे गरीब जीवन भर पुस्तकें पढ़ने से न पा सकेंगे, उससे कहीं सौगुनी अधिक वे इस तरह बातचीत द्वारा पा जाएंगे."
विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन के साथ सेवा का जो आदर्श जोड़ा था, उसकी परीक्षा का समय भी जल्दी ही सामने आ गया. बंगाल में भीषण अकाल पड़ा तो आम जनता के दुख और कराहों ने विवेकानंद को व्यथित किया. उन्होंने रामकृष्ण मिशन को पूरी तरह दीन-दुखियों और पीड़ित लोगों की सेवा में लगाया और स्वयं भी हर तरह से लोगों की सहायता में जुट गए. मंदिर के बाहर रहकर वे सब कार्यों की निगरानी कर रहे थे. भूख से मरते लोगों की तकलीफें इतनी दारुण थीं कि विवेकानंद ने अपने शिष्यों और गुरुभाइयों से यहां तक कहा कि अगर जरूरत पड़ी तो इस मंदिर को भी बेच दिया जाए. उससे जो धन मिले उससे अकालग्रस्त लोगों और दीन-दुखियों की मदद की जानी चाहिए, क्योंकि जीवित मनुष्य से बढ़कर ईश्वर का कोई और मंदिर नहीं हो सकता.
जल्दी ही भारत में ही नहीं, विदेशों में भी रामकृष्ण मिशन की शाखाएं खुलीं और अनेक विचारवान लोग बहुत उत्साह से इसमें शामिल हुए. इंग्लैंड की मिस मार्गेट नोबेल विवेकानंद के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर संन्यासिनी बन गईं. संन्यासिनी होने के बाद विवेकानंद ने उनका नाम निवेदिता रखा. निवेदिता भारत आकर जीवन भर विवेकानंद के विचारों के प्रचार में लगी रहीं. वे अखबारों और पत्रिकाओं में जो लेख लिखती थीं, उनसे पूरे भारत में एक नई हिलोर पैदा होती थी. उन्होंने सच में रामकृष्ण मिशन में सक्रिय होकर स्वामी विवेकानंद के काम को आगे बढ़ाया.
अपनी अनवरत यात्राओं और अहर्निश तप से स्वामी जी का शरीर जर्जर हो चुका था. उन्हें यह आभास हो गया कि अब उनके पास अधिक समय नहीं है. शरीर क्लांत और शिथिल हो चुका था. कहां तो वर्षों पूर्व अमरनाथ की यात्रा के समय वे दुर्गम पहाड़ियों पर चढ़कर गए थे और कहां अब हालत यह थी कि अपने जीवन के सांध्यकाल में वे यात्रा पर गए तो उन्हें सहारा देकर ले जाना पड़ा. शरीर दुर्बल था और मन मुक्त. वे बहुत जल्दी भावावेश और समाधि की अवस्था में पहुंच जाते थे और शरीर की सुध-बुध एकदम खो बैठते. मानो वे जान गए थे कि इस संसार में उनका काम पूरा हो चुका है और अब वे प्रस्थान के लिए तैयार थे. बहुत पहले अपनी एक कविता में उन्होंने यही भावाकुलता प्रकट की थी-
मां, मुझे उस तट तक पहुंचाओ...
इन पीड़ाओं, इन आंसुओं और भौतिक सुखों से परे,
जिस तट की महिमा को
ये रवि, शशि, उडुगण और विद्युत भी अभिव्यक्ति न देते,
महज उसके प्रतिबिंब का प्रकाश लिए फिरते हैं.
ओ मां, ये मृगपिपास भरे स्वप्नों के आवरण
तुम्हें देखने से मुझे न रोक सकें,
मेरा खेल खत्म हो रहा है मां!
ये शृँखला की कड़ियां तोड़ो
मुक्त करो मुझे! (वही, पृष्ठ 347)
सात बरस पहले न्यूयार्क में लिखी गई इस कविता में जो भाव था, वही अब रोम-रोम से प्रकट होकर उनकी चेतना को झकझोर रहा था. आखिर 4 जुलाई, 1902 को केवल 39 वर्ष की अवस्था में भारत के इस महान योद्धा संन्यासी ने अपना चोला छोड़ दिया. लेकिन आने वाली सदियां बड़ी कृतज्ञता के साथ उन्हें एक ऐसे वीर संन्यासी के रूप में याद करेंगी, जिसने अध्यात्म का एक नया और युगांतकारी भाष्य करके उसे जन-जन की पीड़ा से जोड़ दिया और कहा कि ''यह इतना बड़ा आदर्श है, जिसके आगे मुझे अपनी मुक्ति भी छोटी लगती है.''
विवेकानंद सचमुच क्रांतिकारी विचारक थे. यही कारण है कि उनके विचारों को पढ़ते हुए आज भी हमारे भीतर बिजलियां-सी दौड़ जाती हैं.
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स्वामी विवेकानंद को बहुत छोटी उम्र मिली. शायद इसीलिए उन्हें ऐसा उद्दाम आवेग भी मिला, जो सामने उपस्थित बड़े से बड़े जन-समुदाय को किसी प्रचंड वेगवती नदी के तीव्र प्रवाह की तरह बहाए लिए जाता था. लोग उनकी बात सुनकर अपने आप से कहते, "हां, यह ठीक है- यही ठीक है....इसमें कोई संदेह नहीं!" और फिर न जाने कब वे स्वयं को उनके पीछे-पीछे चलते महसूस करते. हजारों लोगों के भीतर उन्होंने ऐसा जादुई व्यक्तित्वांतर पैदा कर दिया कि उन्हें लगने लगगा विवेकानंद से मिलने से पहले वे कुछ और थे और उनसे मिलने के बाद कुछ और हो गए हैं. यह जादू पूरी दुनिया ने देखा, जिसके गवाह हर जगह मौजूद थे.
शायद इसी का यह परिणाम था कि अकेले स्वामी विवेकानंद ने जितना भारत को प्रभावित किया, उतना सैकड़ों समाज-सुधारकों ने भी नहीं. भारत की हजारों वर्ष पुरानी परंपरा उनमें मूर्तिमान लगती थी और वे बोलते थे तो उनके शब्द सीधे दिल से संवाद करते थे, और सुनने वालों का थोड़ी देर के लिए जैसे अपने आप से नियंत्रण समाप्त हो जाता था. वे सुनते थे और अपने आपको उनके साथ बहता महसूस करते थे. सच तो यह है कि विवेकानंद जैसी प्रखर प्रतिभा सदियों में कभी-कभी जन्म लेती है. वे मानो पराधीन भारत के निराशा के बंध काटकर उसमें प्रचंड आत्मविश्वास का लावा भरने के लिए ही जनमे थे.
स्वामी जी कहा करते थे, "हमें ऐसे युवक चाहिए, जिनका शरीर बज्र-सरीखा और धमनियां फौलाद की हों!" और आश्चर्य नहीं कि इसकी सर्वोपरि मिसाल वे स्वयं ही थे. इस दुनिया के लगते हुए भी, इससे बहुत दूर, बहुत ऊपर.
स्वामी जी की शिष्या भगिनी क्रिस्तीन किंचित विस्मय से उन्हें याद करती हुई कहती हैं-
"कभी-कभी समय की दीर्घ अवधि के बाद एक ऐसा मनुष्य हमारे ग्रह में आ पहुंचता है, जो असंदिग्ध रूप से किसी दूसरे मंडल से आया हुआ एक पर्यटक होता है, जो उस अति दूरवर्ती क्षेत्र की, जहां से वह आया हुआ है, महिमा, शक्ति और दीप्ति का कुछ अंश इस दुखपूर्ण संसार में साथ लाता है. वह मनुष्यों के बीच विचरता है लेकिन वह इस मर्त्यभूमि का नहीं है. वह है एक तीर्थयात्री, एक अजनबी- वह केवल एक रात के लिए यहां ठहरता है.... वह जानता है कि वह उस वर्णनातीत स्वर्गीय क्षेत्र से आया है जहां सूर्य अथवा चंद्र की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह क्षेत्र आलोकों के आलोक से आलोकित है. वह जानता है कि 'जब ईश्वर की सभी संतानें एक साथ आनंद के लिए गान कर रही थीं', उस समय से बहुत पूर्व ही उसका अस्तित्व था." (वही, भूमिका, स्वामी विवेकानंद)
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 'दिव्य अस्तित्व' का सर्वश्रेष्ठ अंश लेकर जनमे विवेकानंद के बारे में रोमां रोलां का कहना था कि वे हर क्षेत्र में प्रथम और सिर्फ प्रथम ही हो सकते थे. उनके दूसरे स्थान पर होने की कल्पना ही असंभव लगती है. बेशक वे भारत के ऐसे स्वाभिमानी पुत्र थे, जो दुनिया को जीतने आए थे. बल और अस्त्र-शस्त्र से नहीं, प्रेम की मधुर वाणी और सच्चाई के ओज से. और वे जीते, इसका प्रमाण यह कि जब वे गए तो हर आंख में आंसू थे, जैसे हमें अपनी पहचान कराने और विपत्ति में सहारा देने वाली एक बड़ी शक्ति और ज्योति हमसे छिन गई.
स्वामी विवेकानंद ने गुलामी से आक्रांत भारतीय जनता के मन में ऐसी तेजस्विता और आत्मविश्वास भरा, कि उसके हाथों में पराधीनता को काटने का अमोघ अस्त्र आ गया. सच ही विवेकानंद का प्रादुर्भाव भारत की 'मुक्तिगाथा' का प्रारंभ था, जिसके आगे इतिहास देवता को 'आजादी' का अध्याय तो लिखना ही था!
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हिंदी के एक बड़े कद के मूर्धन्य कवि रामदरश मिश्र ने सही अर्थ में कविसिद्धता हासिल कर ली है. वे बेहद सीधे-सरल और सम्माननीय कवि हैं, जो कविताएं लिखते ही नहीं, कविताएं जीते भी हैं
रामदरश मिश्र हिंदी के एक बड़े कद के मूर्धन्य कवि हैं, जिन्होंने सही अर्थ में कविसिद्धता हासिल कर ली है. बेहद सीधे-सरल और सम्माननीय कवि. वे कविताएं लिखते ही नहीं, कविताएं जीते भी हैं. कविता उनका जीवन है, उनकी सांस-सांस में बसी है. इसलिए और कवियों की तरह कविता लिखने के लिए उन्हें किसी खास वातावरण या मूड की दरकार नहीं है. बल्कि कविता है जो उनके भीतर से बहती है, किसी झरने की तरह अजस्र झरती है, और जो कुछ उनके भीतर चलता है, वह सहज ही शब्दों में उतरता जाता है. इसीलिए रामदरश जी की कविताएं केवल उनकी कविताएं नहीं, बल्कि एक पूरे युग की कविताएं हैं, समय की कविताएं, जिनमें उनके समय का इतिहास अपने तमाम रंग-रूप और परिवर्तनों के साथ बहता चला जाता है.
रामदरश जी की कविता-यात्रा आज से कोई अस्सी बरस पहले शुरू हुई थी, और आज तक थमी नहीं है. उनकी कलम में एक गहरी प्यास, गहरी तड़प है वह सब कहने की, जो उन्होंने बड़ी विकलता के साथ अपने आसपास देखा-भाला और भीतर तक महसूस किया. किस्म-किस्म के अनुभवों से पगी अपनी सीधी, सहज जीवन-यात्रा में जो कुछ उन्होंने जिया, वह खुद-ब-खुद उनकी कविताओं में ढलता जाता है, और वे कविताएं इतने सहज रूप में सामने आती हैं कि हर किसी को वे अपनी, बिल्कुल अपनी कविताएं लगती हैं. हजारों दिलों में वे दस्तक देती हैं और होंठ उन्हें गुनगुनाए बिना नहीं रह पाते.
हालांकि रामदरश जी ने सिर्फ कविताएं ही नहीं लिखीं. उनका गद्य भी बहुत प्रभावशाली है. कहानी, उपन्यास, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत और आलोचना साहित्य- बहुत कुछ उन्होंने लिखा और हर विधा को अपनी लेखनी से समृद्ध किया. पर थोड़ा गौर से देखें तो इनमें भी उनके कवि रूप का ही विस्तार ही दिखाई पड़ता है. उनकी कहानियां हों या उपन्यास, संस्मरण हों या यात्रा-वृत्तांत, सबमें उनके कवि मन की उपस्थिति नजर आ जाती है. यहां तक कि उनकी आलोचना भी एक तरह की सर्जनात्मक आलोचना है, जिसे एक बड़ा सहृदय कवि ही लिख सकता है.
रामदरश जी की कविता से मेरा नाता दशकों पुराना है. याद पड़ता है, कोई पचास बरस पहले जब मैं साहित्य की जमीन पर डरते-डरते अपने कौतुक भरे पांव रख रहा था, तब इसकी शुरूआत हुई थी अपने कस्बाई शहर की लाइब्रेरी में दस्तक देने से. उस लाइब्रेरी में निरंतर आवाजाही करते हुए जो भी अच्छी किताबें मिल सकीं, उन्हें पढ़कर मैं अपनी पसंद की चीजों को स्मृति में संजो लेता. फिर उन साहित्यिक कृतियों को बार-बार मन ही मन दोहराना मेरे लिए बड़े आनंद की बात थी. उन्हीं दिनों मेरे हाथ लगी थी भारतीय ज्ञानपीठ से छपी नवगीतों की एक बेहतरीन पुस्तक 'पांच जोड़ बांसुरी', जिसका संपादन चंद्रदेव सिंह ने किया था. इस नवगीत संचयन में बहुत अच्छे और एकदम अलग तरह के गीत थे, निराला से लेकर बहुत बाद तक के कवियों के.
मेरा खुद का मिजाज गीत का नहीं था. पर जाने क्यों इस संग्रह के बहुत-से गीत मन पर छा गए थे. उनमें केदारनाथ अग्रवाल, ठाकुरप्रसाद सिंह, नरेश सक्सेना और शलभ श्रीरामसिंह के गीतों के साथ-साथ रामदरश जी के भी कुछ गीत पढ़े थे, जिनमें एक गीत कुछ इस तरह मन में नक्श हुआ कि इतने बरसों बाद, आज भी उसकी स्मृति मन में धुंधली नहीं पड़ी. उस गीत के शुरुआती बोल थे, "उमड़ रही पुरवैया कुंतल-जाल सी, लहर रहे अंबर में काले-काले बदरा!"
इतना सुंदर, सघन और दृश्यात्मक गीत था यह कि लगता था, इसमें जीवन की प्राकृतिक सुंदरता अबाध बही चली आ रही है. एक साथ सुंदर, सुकुमार और उदात्त भी, और इसका भाषिक सौंदर्य और लय-विधान तो सचमुच आज भी मुझे 'जादुई' लगता है. इसे आज भी जब-तब मन में दोहरा लेना अच्छा लगता है-
हरी-हरी छाया वन में लहरा रही
धरती नभ में उड़ी-उड़ी जा रही,
झुके हुए घन बहे जा रहे व्योम में
झम-झम रस-बुँदिया में धरा नहा रही.
धूप लजीली उड़ी जा रही पाल-सी
गरज रहे सागर से छाया वाले बदरा,
उमड़ रही पुरवैया कुंतल-जाल सी
लहर रहे अंबर में काले-काले बदरा!इस गीत को पढ़कर लगा था, किसी गीत में लोक-शैलियों का हलका-सा स्पर्श उसे कितना पुष्ट, मांसल और रसपूर्ण बना सकता है कि हम उसमें भीग जाएं और साथ-साथ उड़ने लगें.
मुझ सरीखे एक नए-नए कस्बाई कवि का रामदरश जी से यह पहला परिचय था, जिसने उन्हें जानने तथा और-और जानने की खासी उत्कंठा मन में भर दी थी.
फिर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में आया तो मैं आधुनिक कविता के सौंदर्यशास्त्र पर अपने शोधकार्य में उलझ गया. उस दौरान बहुत सारे कवि जिनकी बहुत चर्चा थी, पास आते गए और मैं उनसे परचता गया. रामदरश मिश्र कुछ पीछे छूट गए. शायद इसलिए कि न उनकी चर्चाओं का शोर कभी था और न उन्होंने कभी वैसा चाहा ही!
फिर एक लंबे अरसे बाद मैंने खुद को प्राध्यापक के रूप में एक कॉलेज में विद्यार्थियों को एक कविता पढ़ाते हुए पाया. एक लंबी कविता, जिसका शीर्षक था 'साक्षात्कार'. कई दिनों तक वह कविता मेरे और विद्यार्थियों के बीच घूमती रही. कई दिनों तक मुझे लगता रहा कि इस कविता को पढ़ाते वक्त मेरे और विद्यार्थियों के बीच कुछ ऐसा वातावरण निर्मित होता है, जिसमें जीवन की बड़ी से बड़ी सच्चाइयां और एक विराट हाहाकार धधकता हुआ चला आता है. और अकादमीय पढ़ाई की औपचारिकताएं खुद-ब-खुद पीछे छूट जाती हैं! कविता के शब्द खुद-ब-खुद मेरे समय का एक आईना बनते जाते हैं, जिसमें कुछ भी छिपा नहीं रहता. चंदन वनों से लिपटे हुए सांपों का बिंब उसमें बार-बार आता है. धरती अनगिनता ऐंठे हुए कंठों, उलटी हुई नदियों, तालाबों और कुछ सपनों भरी ठंडी आंखों से पटी दिखाई देती है.
मुझे हैरानी हुई कि इतनी सख्त कविता जो इतने ज्यादा असुविधाजनक सवालों पर सवाल पूछती थी और हर किसी को भीतर से खंगालती थी, उसी कवि की लिखी हुई थी, जिसने बरसों पहले अपना वह सुमधुर गीत लिखा था, जो बार-बार मेरी स्मृतियों में घुमड़ता था, "उमड़ रही पुरवैया कुंतल जाल-सी, लहर रहे अंबर में काले-काले बदरा...!" और तब मैं उस गीत से इस लंबी और बेहद खुरदरी कविता को जोड़कर देखने लगा. मुझे लगा, ये दोनों दो भिन्न मिजाज की चीजें हैं, पर यह जो बड़ी सख्त और यथार्थ की लंबी मार करने वाली कविता है, वह कहीं न कहीं उस गीत से ही निकलकर आ रही है. इसीलिए इसके शब्दों में एक बेधक सच्चाई है, जिससे आप आंख नहीं चुरा सकते. और उसे गांव का वही सादा आदमी लिख सकता था, जो मुलम्मों और नकली चमक-दमक के प्रलोभन में नहीं आता और चीजों को हर हाल में असली सूरत में देखना चाहता है- यानी हिंदुस्तानी जमीन का कवि, जनता का अपना कवि.
फिर तो रामदरश जी की कविताओं की एक खोज-यात्रा मेरे भीतर शुरू हुई. उनके कई संग्रह खोजकर पढ़े और लगा कि उनकी कविता-यात्रा मेरे भीतर तमाम-तमाम कवियों से परे एक अलग और विश्वसनीय पहचान बना रही है. यह एक सादा लेकिन आत्मविश्वासपूर्ण बड़े कवि की आभ्यंतरिक दुनिया की यात्रा थी, जो खुली आंखों से जिंदगी को देखता है और जिसे आसानी से धोखा नहीं दिया जा सकता, भरमाया भी नहीं जा सकता. वहां भाषा की फालतू चमक-दमक, चतुराइयां कम हैं, लेकिन भीतर का अहसास कहीं ज्यादा बड़ा, कहीं अधिक गहरा है और उससे मुँह चुराना मुश्किल है.
रामदरश जी को पढ़ते हुए पहला अहसास मन में यही जाता था कि यह कवि जो कह रहा है, वह सच कह रहा है- एक खरा सच. उस पर यकीन करो! और कोई कवि अगर यह विश्वास अर्जित कर लेता है, तो मैं समझता हूं, उसने कवि होने की सिद्धता हासिल कर ली है! अलबत्ता उनमें से कुछ कविताएं तनिक फीकी भी लग रही थीं, पर वे नि:संदेह वाग्वैग्ध्य वाली उन तमाम-तमाम कविताओं से अलग थीं, जो नई कविता के दौर में फैशन के तौर पर लिखी जाती थीं और जिनमें यह ढूंढ़ना पड़ता था कि यह अटरम-पटरम, ये लटके-झटके और आपकी विचित्र फूँ-फाँ- यह सब तो ठीक है, मगर यह तो बताइए जनाब, कि आप कहना क्या चाहते हैं! यह राहत की बात है कि जैसे रामदरश जी के यहां न लिखने का कारण जैसे नकली लेखकीय संकट नहीं हैं, वैसे ही अर्थ-न्यूनता की बेचारगी वाला यह कवियों का खुद का बनाया हुआ संकट भी नहीं है.
फिर जब चौदह खंडों में रामदरश जी की रचनावली निकली- बगैर किसी बाजे-गाजे, इश्तहार और शोर-शराबे के निकली तो बाकियों का तो नहीं पता, पर मेरे जैसे पाठक को फिर से उन्हें पढ़ने और दोहराने का सुख मिला. खासकर उनकी कविताओं के दोनों खंड तो मैं पूरे-पूरे पढ़ गया हूं. और अब के पहले से कहीं ज्यादा विस्मित हूं कि मैं इतना जानने के बाद भी, अपने समय के एक बड़े कवि को सचमुच कितना कम जानता हूं.
2.
रामदरश जी की सीधी-सादी लगने वाली कविता-यात्रा असल में इतनी सीधी-सहज भी नहीं है कि उसकी सिधाई के लिए आप उसकी उपेक्षा कर दें. गौर करें तो उसमें शक्ति और ऊर्जा के कुछ ऐसे उल्का-पिंड आपको तैरते नजर आ सकते हैं, जो बहुत चुपके से यह समझा जाते हैं कि रामदरश मिश्र का सीधा होना एक बड़ी काव्य-मेधा या कवि शख्सियत का, एक बड़ी सामर्थ्य से कमाया हुआ धीरज और संयम है, जिसके भीतर आपको काफी उथल-पुथल मिलेगी. रामदरश जी की इस कविता-यात्रा की शुरुआत खुद में खासी बुलंद रही होगी, यह उनके शुरुआती संग्रह 'पथ के गीत' के गीतों पर एक नजर डालते ही पता चल जाता है. ये गीत उनकी आगे की कविता-यात्रा की बड़ी तैयारी का पता देते हैं और उनमें ऐसे गीत भी हैं, जिनका मिजाज और रंगत गीतों के प्रचलित ढांचे से एकदम अलग है.संग्रह का पहला ही गीत 'चल रहा हूं, क्योंकि गति से पंथ का निर्माण होगा' कई मायनों में एक दमदार गीत है और उसे लिखते समय शायद रामदरश जी को भी यह आभास न होगा कि एक दिन उनका यह गीत चौदह खंडों में छपी उनकी पूरी रचनावली का खुद-ब-खुद एक सटीक बिंब...या कहिए कि एक 'सिगनेचर ट्यून' बन जाएगा. चलते-चलते और अपने आत्मविश्वासपूर्ण कदमों से राह बनाते हुए भी रामदरश जी आज वहां आ गए हैं, जहां होना किसी रचनाकार की सबसे बड़ी महत्त्वाकांक्षा और अभिलाषा हो सकती है.
इसी से मिलता-जुलता एक और सुंदर गीत है, 'क्षितिज की धूसर डगर पर एक जीवन चल रहा है' जिसमें कहीं न कहीं दुख और विषाद की एक हलकी सी छाया भी है. इसे एक प्रतीक के रूप में देखें, तो कल की धूसर डगर आज साफ हो चुकी है और तमाम निराशाओं, हताशाओं और संघर्ष-यात्राओं को अपने उत्कट धीरज से पार कर आए रामदरश जी को हम अपने बीच पूरे आत्मविश्वास के साथ उपस्थित पा रहे हैं. यह कहीं न कहीं हम सभी के लिए आस्था और गर्व की चीज है. अलबत्ता 'पथ के गीत' में शामिल कुछ गीतों, 'संध्या में बादल डूबे हैं, मन डूबा सन्नाटे में...' या 'खेतों की सिकुड़ी साड़ी में तिजहरिया अलसाई है...', 'मैं अषाढ़ का पहला बादल, मेरी राह न बांधो', 'यह फागुन की रात रे, मन उड़-उड़ जाए' तथा एक और सुंदर गीत 'डूब गया दिन धीरे-धीरे...!'- इन गीतों को याद कर लें, तो पता चलेगा कि रामदरश जी के कवि का निर्माण किस तरह के ईंट-पत्थर और गारे से हुआ है. और क्यों दिल्ली में इतने बरस रहने के बावजूद आज भी वे गांव के हैं. गांव उनमें और उनकी रचनाओं में किसी अक्षय-स्रोत ही नहीं, बल्कि प्राण-शक्ति की तरह बहता है.
रामदरश जी के ये गीत न तो छायावादी गीत हैं और न उत्तर-छायावादियों के-से कवि-सम्मेलनी गीत हैं. ये वे गीत हैं जिनमें गांव अपनी पूरी लोक-संस्कृति, लोकगीतों, आख्यानों और सुख-दुख-अभाव के विविध रंगों के साथ मौजूद है. लिहाजा गीतों की उनकी राह भी कुछ अलग ही है, जो जल्दी ही यथार्थ के गझिन रंगों से मिलकर उन्हें नई कविता की ओर ले आई.
3.
रामदरश जी के अगले कविता संग्रह 'बैरंग बेनाम चिट्ठियां' की खासियत यह है कि वह उनकी कविता-यात्रा का एक महत्वपूर्ण संधि-स्थल है और गीत और कविता के अनोखे मेल के कारण इसका अध्ययन साहित्य के किसी पाठक को खासा दिलचस्प लग सकता है. इसलिए कि इसे पढ़ना एक इतिहास को टटोलना है कि कैसे एक गीतकार खुद को कवि या कविताकार में बदल रहा है. नहीं शायद मैंने गलत कहा. असल में एक गीतकार कैसे खुद-ब-खुद अपने समय के भीतरी और बाहरी थपेड़े खा-खाकर कविताकार हुआ जा रहा है, 'बैरंग बेनाम चिट्ठियां' को पढ़ना इसका गवाह होना है. लिहाजा कहां-कहां गीत में कविता और कविता में गीत घुला-मिला है और कहां चलकर वे अलग होते हैं, मुझे कुछ-कुछ वैसा ही रहस्यमय और रोमांचक लगा, जैसे शायद इतिहास की कुछ अंतर्गुहाओं के भित्ति-शिल्प का अध्ययन करते हुए किसी इतिहास-प्रेमी या खोजी को लगेगा.
इस संग्रह में नि:संदेह 'बैरंग बेनाम चिट्ठियां', 'नींव के पत्थर', 'देहाती टीसन', 'आत्मशोध', 'कालयात्री', 'निशान' जैसी कुछ बढ़िया जानदार कविताएं हैं. बेहद संवेदनात्मक कविताएं, जो मिलकर वह नींव बनाती हैं, जिस पर आगे चलकर रामदरश जी की कविता की पूरी इमारत खड़ी नजर आती है. लेकिन इस संग्रह में कुछेक ऐसी भोली, अल्हड़ कविताएं भी हैं, जिनकी मसें अभी भीग रही हैं. कविता की तैयारी की कविताएं. लेकिन दूसरी ओर इस संग्रह के गीत देखिए, तो उनमें कुछ ऐसी पूर्णता है कि उनकी सफाई और सुघराई आपको मोहे बगैर नहीं रहती! वहां सादगी ऐसी है कि उसका जादू सिर चढ़कर बोलता है, कुछ-कुछ मीर की गजलों की तरह. इनमें से एक गीत है-तुम बिन कुछ खोया-खोया सा
कुछ सूना-सूना लगता है,
रीते घर का हर रीतापन
कुछ दूना-दूना लगता है.ऐसे ही एक और गीत देखें. इसमें बगैर बादलों की चर्चा किए बिना बादलों की बात उठाई गई है, बहुत खूबसूरती से-
आते घिर-घिर
जाते फिर-फिर,
धरती के आंगन में इनका
क्या जाने क्या छूट गया है.संग्रह के एक और गीत में बहुत कम कहकर बहुत कुछ कह देने का लाघव है. बात फूलों की है, मगर फूल यहां जलते हैं-
जलते हैं फूल
घाटी में जलते हैं सेमल के फूल.क्या 'जलने' की जगह कोई और शब्द आप सुझा सकते हैं? नहीं, यहां जलने की सुंदरता है, जिसे किसी सिद्ध गीतकार की आंख ही देख सकती है.
और फिर एक और गीत पर हमारा ध्यान जाए बगैर नहीं रहता, जिसका उस्तादाना एक्सप्रेशन उसे एक बड़ी दार्शनिक ऊंचाई दे देता है-
यह भी दिन बीत गया,
पता नहीं जीवन का यह घड़ा,
एक बूंद भरा या कि एक बूंद रीत गया.यानी अस्तित्व की निष्फलता और उदासी का गीत. मगर यही अस्तित्व की निष्फलता या उदासी जब किसी गांव की स्त्री के दुख और आंसुओं से जुड़ती है, तो उसकी रंगत ही बदल जाती है. और गीत एक टेर की शक्ल ले लेता है, "बादल घेर-घेर मत बरस कि मेरे लाज-वसन डूबे."
ये गीत देखने में सीधे, सरल लग सकते हैं, लेकिन मुझे कहने दीजिए कि इनकी सरलता कुछ-कुछ धोखेभरी सरलता है. इसलिए कि ये बहुत-कुछ सहकर, पचाकर और एक बड़ी काव्य-सामर्थ्य को हासिल करने के बाद लिखे गए गीत हैं. ये देखने में सरल इसीलिए लगते हैं क्योंकि एक सिद्ध कवि ने इस गीतों के दर्द को अपना, बिल्कुल अपना बनाकर लिखा है. 'बैरंग बेनाम चिट्ठियां' की कविताएं मैं नहीं कहता कि हलकी हैं, लेकिन उसके गीतों का कद उसमें शामिल कविताओं की तुलना में निस्संदेह बड़ा है.
हां, ये कविताएं एक देहाती मन की झिझक के साथ-साथ बड़ी पुख्तगी से यह कहती लग सकती हैं कि रामदरश जी की कविताओं की यह गाड़ी जो आज 'देहाती टीसन' पर खड़ी है, कल हो सकता है राजधानी पहुंचे. मगर राजधानी पहुंचकर भी वह शहराती उतरन पहनने से इनकार करेगी और अपना 'देसीपन का ठाट' हर हाल में बचाए और बनाए रखेगी. और हम देखते हैं, यह चीज अक्षरश: सही साबित हुई.
4.
'पक गई है धूप' में निस्संदेह रामदरश जी की काव्य-यात्रा के शुरुआती कच्चेपन की जगह एक तरह की पुष्टता और गांभीर्य नजर आने लगता है. इस लिहाज से 'पक गई है धूप' का मुहावरा रामदरश जी और उनकी काव्य-यात्रा पर इतना खरा उतरता है कि मैं चकित हूं. इसमें ऐसी ढेरों कविताएं हैं जिन्हें हिंदी की अच्छी और याद रह जाने वाले कविताओं में शामिल किया जा सकता है. इनमें भी कोई कोई दर्जन भर कविताएं तो बेहतरीन और अद्वितीय हैं- अपने आप में एकदम मुकम्मल! यह रामदरश जी की रचना-यात्रा का समृद्ध काल है. एक भरा-पूरा यौवन!संग्रह की पहली कविता 'होने न होने के बीच' ही नजर को पकड़ लेती हैं और बार-बार इसे पढ़े बगैर आप आगे नहीं जा सकते. लेकिन गौर करने की चीज यह है कि यह होना न होना किसी अस्तित्ववादी चिंतन की चिर-पहेली का-सा नहीं हैं, 'टू बी आर नॉट टू बी...?' न, नहीं! यह वो चीज नहीं है. यह उससे अलग है. यह एक सही आदमी के गलत जगह आ जाने की छटपटाहट है, अपने गलत ढंग से होने और इससे भी साफ शब्दों में कहूं, तो गलत ढंग से समझे जाने की पीड़ा है. और कहीं न कहीं जैसा होना चाहिए, वैसा न हो पाने की मर्मांतक पीड़ा है. अगर मैं कहूं कि यह रामदरश जी की अपनी पीड़ा है, निज का दर्द, जिसमें कहीं न कहीं उनकी आत्मकथा के पन्ने भी फड़फड़ाते नजर आ सकते हैं, तो कुछ गलत न होगा.
दूसरे शब्दों में कहें, तो वह गांव और शहर के बीच का तनाव है. गांव शहर में आकर कुछ ठिठक गया है, मगर गांव अपने ठेठपने को भी हरगिज छोड़ने को तैयार नहीं है. और इस तरह अगर इसमें अस्तित्ववादी सोच की एकाध भूली-भटकी सोच है भी, तो वह भारतीय जमीन पर आकर, भारतीय सोच और बेचैनी के महासमुद्र में जा मिली है. 'महासागर', 'आकाश में फसल लहलहा रही है', 'बाहर-भीतर', 'तलाश', 'एक और पृष्ठ', 'रचना', 'अजनबी', 'ठंडी हवाएं', 'सुखी लोग', 'पक गई है धूप' संग्रह में ऐसी एक से एक बेहतरीन कविताएं हैं, जिनमें रामदरश जी का कविता गढ़ने का अपना मौलिक तरीका और औजार नजर आते हैं. हालांकि 'छाँह गलियों में भटकती है', 'एक बहकी हवा फागुन की' जैसी गीतात्मकता अभी बरकरार है जो मिश्र जी के अपने मुक्त स्वभाव की तरंग की तरह हमें अपने संग बहाए लिए जाती है.यों इस संग्रह में 'आकाश में फसल लहलहा रही है' समेत कुछ और कविताएं इसलिए भी याद की जा सकती हैं कि उनमें भारत-पाकिस्तान युद्ध और तबाही की बहुत उग्र छायाएं मौजूद हैं और ये सचमुच एक दस्तावेज की तरह हैं. 'मेरा आकाश', 'गाड़ी जा रही है', 'फिर वही लोग' मिश्र जी की लंबी महत्त्वाकांक्षी कविताएं हैं जिनमें उनके युवा मन की पूरी ऊर्जा और बेचैनी हमें नजर आती है. मगर एक खास तरह के धीरज, संयम और खुली दृष्टि के साथ.
इसके बाद के संग्रह 'कंधे पर सूरज' और 'दिन एक नदी बन गया' रामदरश जी की कविताओं के निस्संदेह बहुत अच्छे संग्रह हैं, जिनकी सबसे ज्यादा चर्चा हुई है. उनकी रचना-यात्रा का यह शिखर-काल है. इन संग्रहों की दर्जनों ऐसी कविताएं हैं, जिन्हें बार-बार उद्धृत किया गया है और जिनकी चर्चा के बगैर नई कविता या समकालीन कविता की व्याख्या पूरी नहीं हो सकती. 'कंधे पर सूरज' खुद में एक लाजवाब कविता है और उसे हिंदी की शीर्ष उपलब्धियों में गिना जाना चाहिए. इसी संग्रह में 'साक्षात्कार' शीर्षक वह लंबी कविता है, जिसमें समकालीन जीवन-यात्रा के बहुत कठोर बिंब हैं, और जिसे पढ़ते हुए का समकालीन कविता का साठोत्तरी दौर हमारी आंखों के आगे कौंध जाता है. 'गठरी', 'लौट आया हूं मेरे देश', 'एक जंगल', 'वह इसी मौसम में आता है', 'छुट्टियों के दिन', 'बोध' शीर्षक से लिखी गई छह कविताएं, 'अपने से अपने तक', 'रावण का पुतला', 'यही होना है', 'एक दिन' इस संग्रह की बार-बार पढ़ी जाने लायक लाजवाब कविताएं हैं.
इसी तरह 'दिन एक नदी बन गया' संग्रह की 'सड़क', 'हम कहां हैं', 'एक दिन में दो दिन', 'धूप', 'राजधानी एक्सप्रेस', 'खोज' ऐसी कविताएं हैं, जिनमें रामदरश जी का काव्य-मुहावरा अपने पूरे निखार और तेवर के साथ मौजूद है. हालांकि इस दौर में भी 'खो गई हैं सब यात्राएं साथ की, रास्ता ही रास्ता अब रह गया' जैसी करुणा गूंजों और नाद वाले गीत उनके साथ चलते रहे और इससे उनकी कविता-यात्रा में कोई अंतर्विरोध नहीं, एक पुख्तगी और भीतरी रस ही जुड़ा.
हां, रामदरश जी अपने तमाम आलोचकों को, जो महज उन्हें 'एक सीधा-सादा कवि' कहकर एक छोटी पिटारी या खाने में डाल देना चाहते हैं, कभी-कभी बड़े मजे में खिलाते और हड़काते भी रहते हैं. ऐसे 'श्रीमंत' लोग कल्पना तक नहीं कर सकते कि रामदरश जी 'मृत्युबोध' जैसी कविताएं भी लिख सकते हैं जो उनके फूले हुए अस्तित्ववादी पेट में बड़ी होशियारी से एक सूई चुभा देती है. और फिर 'मृत्युबोध' का विदेशी बोध पढ़े हुए प्यारेलाल का जो नाटक आंख के आगे आता है, वह सचमुच कमाल का है! 'आनंद-बोध' कविता में तो वे अपने आलोचकों और पाठकों दोनों को लगभग भौचक्का करते हुए 'कुकुरमुत्ता' के साथ एक 'जुत्ता' ले आते हैं, उससे अच्छे-अच्छों की सांस उखड़ सकती है, चेहरा फक्क हो सकता है. लगता है, निराला की 'कुकुरमुत्ता' कविता को उन्होंने थोड़ा और अर्थ-विस्तार दे दिया हो.
5.
इससे आगे की रामदरश जी की काव्य-यात्रा जिसमें 'जुलूस कहां जा रहा है', 'आग कुछ नहीं बोलती', 'बारिश में भीगते बच्चे', 'ऐसे में जब कभी' और गजल-संग्रह 'हंसी होंठ पर आंखें नम हैं' शामिल हैं, रामदरश जी के प्रौढ़त्व की काव्य-यात्रा है, जिसमें उनकी कविता की दुनिया बहुत आश्चर्यजनक ढंग से फैलती गई है. आसपास की दुनिया का कोई छोटा से छोटा, मामूली से मामूली अनुभव भी वहां प्रवेश के लिए द्वार खटखटाकर दस्तक दे सकता है. मानो रामदरश जी दर्शा देना चाहते हों कि अब उनकी कविता एक ऐसी बड़ी परिवारिकता का रूप लेती जा रही है, जिसमें हर शख्स उसी अधिकार से आकर बैठ और बतिया सकता है, जैसे वह उसका अपना घर हो! यह आकस्मिक नहीं कि इस दौर में रामदरश जी की कविता का बीज शब्द 'घर' है और उनके जिस काव्य-स्वर की गूंज-अनुगूंज उनकी इस दौर की पूरी काव्य-यात्रा में समाई हुई है, उसे अगर कहना हो, तो उन्हीं के गीत की एक पंक्ति उठानी पड़ेगी, 'दिन डूबा, अब घर जाएंगे.'यह जो घर जाना है, यह जो घर की ऊष्मा भरी पारिवारिकता है, और यह जो इस घर की पारिवारिकता में सारी दुनिया को परिवार बनाकर समा लेना है, इसे अपने दौर के दो बड़े लेखकों में मैंने बड़े आश्चर्यजनक ढंग से देखा. एक डॉ. रामदरश मिश्र, दूसरे डॉ. रामविलास शर्मा. दोनों दो भिन्न प्रकृति के लेखक, लेकिन यह जो घर की मर्यादा और आदर्श है, वह उनके महत् जीवन-आदर्शों में इस तरह घुल-मिल गया है कि उनकी शब्द-यात्रा लगातार अविचलित भाव से और-और बड़े शिखरों तक जाती रही है. इससे मालूम पड़ता है कि घर कोई छोटी चीज नहीं, बल्कि घर भी एक बड़ा आदर्श है और घर के आदर्शों को अपने ऊंचे जीवन-आदर्शों से एकाकार कर देने से ही किसी व्यक्ति या लेखक में वह भीतरी दृढ़ता आती है कि वह अटूट आस्था के साथ अंत तक चलता और आगे बढ़ता नजर आता है.
जाहिर है, इस दौर की रामदरश जी की सबसे अच्छी कविताएं वे हैं, जो पत्नी, बच्चों, घर और आसपास को लेकर लिखी गई हैं. इस लिहाज से 'आग कुछ नहीं बोलती' संग्रह में 'लड़की' शीर्षक से लिखी गई आठ कविताएं बहुत मार्मिक हैं और अपनी सादगी में अद्वितीय भी. ऐसी ही कुल छह लाइनों की एक छोटी-सी कविता यहां उद्धृत कर रहा हूं-
लड़का बड़ा हो रहा है
लड़की बड़ी हो रही है
लड़का धीरे-धीरे घर खाली कर रहा है
लड़की धीरे-धीरे घर भर रही है
लड़का डरा रहा है सड़कों-चौराहों को
लड़की स्वयं अपने से डर रही है.कोई छह लाइनों की कविता भी कैसे एक मुकम्मल और भरी-पूरी कविता हो सकती है, इसका उदाहरण देना हो तो इससे अच्छी कितनी कविताएं मिलेंगी आपको?
ऐसे ही 'तुम्हारी हंसी' की घुटरुओं चलती यह छोटी-सी बच्ची नहीं भूलती, जो दिन भर की उदासी का कलेजा चाक कर देती हैं और आकाश में चाँदनी निकल आती है. 'बारिश में भीगते बच्चे' की 'घर' शीर्षक से लिखी गई पांच कविताएं या 'संकु' के लिए लिखी गई कविता भी ऐसी ही आत्मीय हैं. 'आग कुछ नहीं बोलती' संग्रह की 'मकान' कविता अपना घर होने का एक और अर्थ खोलती है. सीमेंट और ईंटों से बने इस मकान में जमीन का एक टुकड़ा खाली छूटा हुआ है, जहां नींबू का एक छोटा-सा पेड़ और तुलसी का बिरवा है. इसी से यह मकान, मकान न रहकर 'घर' हो जाता है.
इसी तरह 'जुलूस कहां जा रहा है' की 'औरत' कविता स्त्री होने के कितने बड़े अर्थ और अस्तित्व को खोलती है, यह इसे पढ़कर ही जाना जा सकता है. पूरा घर उसकी लय पर चलता है. सभी के सुखों, हंसी-मुसकराहट और गुनगुनाहटों की नींव में वह है. चरखे की तरह वह रात-दिन चलती रहती है. सबके साथ हंसती है और अपने एकांत में बहुत हलके से अपनी कराह को दबा लेती है. सबके होने के पीछे असल में इस औरत का होना ही है. मगर इस औरत के होने को सचमुच किसने महसूस किया है! 'अकेला कबीर', 'रूपांतर', 'बात', 'तुमने क्यों कहा', 'बड़प्पन', 'हम दोनों', 'कट-फटे पृष्ठ', 'गोली', 'आलोचक', 'चिट्ठियां', 'माइक', 'धर्म' इस दौर की रामदरश जी की वे कविताएं हैं, जिनमें बगैर 'लाउड' हुए जीवन की बड़ी से बड़ी विसंगतियों को मानो वे खेल-खेल में कह जाते हैं. यह वह दौर है, जबकि उनका गुस्सा, आक्रोश, दर्द, सब-कुछ एक तरह की संजीदगी में ढल गया है. और इनका आस्वाद कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे धरती से जन्म लेने वाले लोकगीतों और लोकाख्यानों का रहा होगा, जिनमें एक भीतर की गहराई खुद-ब-खुद आती चली जाती है.मजे की बात यह है कि इस दौर में रामदरश जी ने बहुत-सी गजलें भी लिखीं और इनमें कुछ तो इतनी सुघड़ और कामयाब हैं कि लगता है उनके गीतकार का ही एक नया कायाकल्प एक गजलकार के रूप में हुआ है. इसीलिए जब वे कहते हैं-
हम हैं तुम हो, तुम हो हम हैं,
छोटे-छोटे सुख क्या कम हैं!मगर इसी के बीच उदासी की एक लहर भी छिड़ जाती है, जब वे देखते हैं कि जो कभी साथ थे, वे अब एक-एक कर विदा हो रहे हैं-
एक-एक जा रहे हैं सभी,
मन बड़ा अकेला लगता है.इस दौर में रामदरश जी की कई ऐसी कविताएं हैं, जिनमें अपनी बात को खरे ढंग से कहने का साहस और बोल्डनेस बढ़ी है और वे बिना 'किंतु-परंतु' के अपराधी को अपराधी कहने के लिए जैसे विकल हो उठी हों! मसलन 'बड़प्पन: दो कविताएं' में वे उस लेखक के बड़प्पन पर हंसते हैं, जो जहां कहीं जाता है, चाहे किसी शोक-सभा में ही, अगली पंक्ति की कुर्सी खोजता है और इस बात के लिए बेचैन रहता है कि पहली प्रतिक्रिया उसकी आनी चाहिए.
सच पूछिए तो रामदरश जी के भीतर कहीं न कहीं इस बात की गहरी विकलता है कि हमारा आज का साहित्यिक माहौल फिर से निर्मल और प्रीतिमय हो. ताकि पूरे समाज में वह प्राण संचरित कर सके और लोग पहले की तरह गहरे आकर्षण के साथ उससे जुड़कर आनंदित हों. साथ ही आस्था, ऊर्जा और जीवन शक्ति हासिल करें.
6.
इसके बाद आए रामदरश जी के कविता संग्रह 'आम के पत्ते' (2004), 'आग की हंसी' (2012) और 'मैं तो यहां हूं' (2015) उनकी उस सिद्धावस्था की कविताएं हैं, जिसे चतुर्दिक सम्मान मिला. इनमें 'आम के पत्ते', जिस पर रामदरश जी को व्यास सम्मान भी मिला है, कई मायनों में उत्कृष्ट संग्रह है, और उनकी पूरी काव्य-यात्रा की चुनिंदा कविताओं का संग्रह तैयार करना हो, तो संभवतः 'आम के पत्ते' की सर्वाधिक कविताओं को आपको सहेजना होगा. खासकर इस संग्रह में मेज, कुर्सी, सूई, चाकू, चम्मच, कलम जैसी निर्जीव चीजों पर लिखी गई रामदरश जी की कविताएं तो अद्भुत हैं, जिनमें जीवन और जिंदादिली छलछला रही है. इसलिए ये चीजें रामदरश जी की कविता में आकर केवल कुछ मामूली चीजें नहीं रह जातीं, बल्कि ये एकाएक सजीव हो उठती हैं और उनमें जीवन का सहज प्रवाह फूट पड़ता है. उदाहरण के लिए 'मेज' कविता देखें, जिसके साथ जिंदगी का पूरा एक मेला जुड़ा हुआ है, और खुद मेज को भी इसका अहसास है. कविता की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है-कमरे में नंगे पठार सी पड़ी होती हूं
और बच्चे मुझ पर खेलते हैं सांप-सीढ़ी का खेल
उनके हाथों के स्पर्श से लगता है
जैसे खरगोश का कोई बच्चा मेरे ऊपर से सरक रहा है
कभी गिरे होते हैं उनकी थाली से दाल और सब्जी के पीले-पीले धब्बे
और मैं भूख का स्वाद महसूस करती हूं
कभी वे मेरे ऊपर बस्ता फेंककर चले जाते हैं
बस्ते में महकती कापियों का दबाव
कितना गुनगुना लगता है जाड़े की धूप साइस कविता का अंत भी बहुत संवेदनात्मक है. रात के सन्नाटे में मेज पर रखी किताबों के पन्ने अचानक खुलने लगते हैं और किताबें आपस में बतियाती हैं तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता. उसे लगता है कि वह काठ की मेज नहीं, बल्कि कोई सजीव प्राणी है और समूची दुनिया अपनी पूरी हलचलों और आस्वाद के साथ उसके इर्द-गिर्द सिमट आई है. इसी तरह 'कलम' भी बड़ी मार्मिक कविता है, जिसके साथ भावनाओं का पूरा एक रेला है. यही कलम है जिससे हम बचपन में मोटा सा 'क' लिखते हैं और हमारा मन जैसे खुशी से चहक उठता है. तब हमारे बचपन की इस चहक के साथ ही कलम भी खिलखिला उठती है और जीवन भर उसका होना हमारे साथ रहता है. जीवन के इस प्रवाह में साथ चलते हुए वह खुश भी होती है, दुखी भी और उदास भी. लीजिए, अब जरा मामूली सी लगती इस कलम की दो बातें तो सुनें, जिनमें उसका हृदय बोल रहा है-
याद है जब तुम बच्चे थे
जब मैं पहली बार तुम्हारी अंगुलियों में फंसकर
मोटा सा क बन गई थी
तो तुम्हारे साथ मैं कितनी उत्फुल्ल हुई थी
वह अक्षर तुम्हारे भीतर-बाहर निहित
अमित उजास का पहला बिंदु था
जो धीरे-धीरे रेखाएं बनता गया
और रेखाओं से
न जाने कितने चित्र आकार पाते गए
उस दिन तुम्हारे खेलने में
एक अलग तरह की चहक थी
उस चहक में एक महक थी
और मैं अपनी जगह स्थिर होकर भी
तुम्हारे साथ खेल रही थी खिलखिलाती हुई.रामदरश जी की कई कविताओं में उनके बचपन के साथ-साथ मां और पिता की बड़ी आत्मीय छवियां आती हैं. 'आम के पत्ते' में भी ऐसी दो बड़ी संवेदनात्मक कविताएं हैं. इनमें 'पहचान' में बचपन के एक छोटे से प्रसंग के साथ मां चली आती हैं-
बाएं हाथ की कलाई पर जब-जब घड़ी बांधता हूं
तुम दिखाई पड़ जाती हो मां
चोट के इस निशान में
समय और तुम
दोनों साथ-साथ बहने लगते हो मुझमें
और कविता का अंत इन पंक्तियों से होता है-
अब यह निशान मेरी पहचान बन गया है
जो मेरे भीतर से लेकर
पहचान-पत्रों तक में दर्ज है
और इसमें पड़ी-पड़ी तुम मुसकरा रही हो मां!"ऐसे ही पिता पर लिखी गई 'पिता तुम्हारी आंखों में' इतनी मार्मिक कविता है कि पढ़ते हुए आंखें भीगने लगती हैं. कविता छंद में है, पर उसमें जीवन का इतना सहज प्रवाह है कि शब्द मानो खुद-ब-खुद आपस में जुड़कर एक करुण भाव की सृष्टि कर देते हैं. रामदरश जी का अभावों में बीता फटेहाल बचपन, पिता का कोमल प्यार और बेबसी- सब कुछ इस कविता में इस तरह चला आया है कि इस छोटी सी कविता में मानो रामदरश जी की आत्मकथा का पूरा एक अध्याय सिमट आया है-
जाने क्या-क्या देखा, पाया, पिता तुम्हारी आंखों में.
फटेहाल बचपन था मेरा, हंसती हुई उदासी सा
भूखा-प्यासा दिन आता-जाता था अपने साथी सा,
लगता था मैं हूं भर आया, पिता तुम्हारी आंखों में.
कहां-कहां से तुम आते थे थके हुए तन में, मन में,
एक बेबसी चुप-चुप आकर सो जाती थी आंगन में,
हिलता था रातों का साया पिता तुम्हारी आंखों में.
भहराकर गिरती थीं जल में घर की दीवारें कच्ची,
नंगा हो उठता था आंगन, रोते थे चूल्हा-चक्की,
कैसी थी भादों की छाया, पिता तुम्हारी आंखों में.संग्रह की एक और खूबसूरत कविता 'मेरे मकान में एक आंगन भी है' पढ़ते हुए, मन भीगने लगता है. यों तो ज्यादातर बंद कमरों में सिमटकर ही शहर का सुरक्षित जीवन बीतता है. पर जब कभी हम आंगन में आकर बैठते हैं, तो एकाएक बहुत कुछ बदलने लगता है और जीवन अपनी सहज उत्फुल्ल चाल में चलने लगता है. जरा पढ़ें इस कविता की ये भावपूर्ण पंक्तियां, जो हमें कहीं न कहीं भीतर-बाहर से बदलती भी हैं-
लेकिन कभी-कभी जब यों ही
मैं अपने आंगन में जा बैठता हूं
तो लगता है
खुला आकाश भर आया है मेरी आंखों में
...
धूप की कितनी ही लिपियां
अंकित हो जाती हैं मेरी त्वचा पर
हवा के विविध स्पर्शों के अंकुर
मेरे रोम-रोम में उग आते हैं
आंगन में पैठने लगते हैं धीरे-धीरे
पड़ोस के सुख-दुखों के स्पंदन
और मैं बाहर निकलकर जाने लगता हूं
पड़ोस से पड़ोस तक, पड़ोस से पड़ोस तक
और यह अहसास इतना आत्मीयता से सराबोर कर देने वाला है कि रामदरश जी को लगता है, 'बहुत दिनों बाद मैंने नदी में स्नान किया है, और मेरे अंग-अंग में जल थरथरा रहा है!'रामदरश जी की कविताएं मनुष्य से संवाद की कविताएं हैं और संवाद की यह बेकली उनकी बहुत सी कविताओं में व्यक्त हुई है. हालांकि 'आम के पत्ते' संग्रह में शामिल 'आओ बात करें' कविता इस लिहाज से मुझे अन्यतम लगती है, जिसमें कहीं एक गहरी पुकार है, जो हमें भीतर तक मथने लगती है-
पथ सूना है तुम हो, हम हैं, आओ बात करें.
गुमसुम-गुमसुम सा है मन, आंखें खोई-खोई,
दिशा-दिशा चुपियों बीच लगती सोई-सोई,
देखो गई हवाएं थम हैं, आओ बात करें.इस प्रगीतात्मक कविता का एक और पद इतनी सघन संवेदना लिए हुए है कि एक बार पढ़ने के बाद ये पंक्तियां बार-बार मन में गूंजने लगती हैं-
कहते-सुनते, सुनते-कहते दिन कट जाएंगे,
हंसी, हंसी से, आंसू से आंसू बंट जाएंगे,
साथ सफर की घड़ियां कम हैं, आओ बात करें.
सच पूछिए तो यह नए जमाने के नए बोध का गीत है, जो गीत और कविता के बीच की दूरियों को पाटकर, एक भावनात्मक पुल सरीखा बन जाता है. कहना न होगा कि रामदरश जी की ये प्रगीतात्मक कविताएं कल के गीत की सही दिशा की ओर भी इंगित कर रही जान पड़ती हैं.7.
साहित्य अकादेमी पुरस्कार से अलंकृत कविता संग्रह 'आग की हंसी' में भी ऐसी बहुत सी कविताएं हैं, जो रामदरश मिश्र जी की आज की मनःस्थिति को बहुत गहराई से व्यक्त करती हैं. इनमें 'मन तो' शीर्षक से लिखी गई एक कविता में मन और शरीर के बीच की बड़ी विचित्र सी द्वंद्वात्मक स्थिति है. मन पहले की तरह समय के साथ बहना और निरंतर यात्राएं करना चाहता है, पर शरीर थकने लगा है. रामदरश जी दोनों को महसूस करते हैं और इस द्वंद्व को बड़े शांत भाव से जीते हैं-चुप बैठा रहता हूं मैं अनभीगा सा,
सामने समय का जल बहता रहता है.
है चहल-पहल कितनी तो दाएं-बाएं,
पर भीतर सन्नाटा दहता रहता है.
लंबी यात्राओं के कुछ मीठे लम्हे,
मेरी तनहाई में आते-जाते हैं.
अनसुनी किया करता है थका-थका तन,
मन तो जाने क्या-क्या कहता रहता है.ऋतुओं का चक्र निरंतर चलता है और अपने साथ मनुष्य को भी बहाए लिए जाता है. क्वार आया तो हरसिंगार पर फूल आ गए, पर रामदरश जी की जीवनसंगिनी सरस्वती जी नर्सिंग होम में हैं. इसके बावजूद हरसिंगार के टप-टप टपकते फूलों की महकती पुकार और चिड़ियों की चह-चह तो रुकती नहीं है. सरस्वती जी घर में नहीं हैं, पर सबसे ज्यादा कमी उन्हीं की महसूस होती है. 'फिर आ गया क्वार' इस लिहाज से बड़े आत्मीय रंगों वाली कविता है-
फिर क्वार आ गया
और सरस्वती जी फिर नर्सिंग होम में
आंगन में
उनके द्वारा लगाया गया हरसिंगार
रात भर महकता है
और सुबह-सुबह फूलों की बारिश कर देता है
पुकारता है सरस्वती जी को-
'कहां हो,
मेरे फूल तुम्हारी अंजलि की प्रतीक्षा में
जमीन पर बिखरे पड़े हैं!'
गिलहरियां इस डाल से उस डाल तक फुदकती हैं
मानो कुछ खोज रही हों
चिड़ियां शोर मचाती हुई उड़ती रहती हैं
कहती हैं-
'कहां हो, कहां हो, हमें दाना-पानी चाहिए.'
'कितना अच्छा लगता है' इस संग्रह की एक बड़ी सुंदर प्रगीतात्मक कविता है, जो बहुत थोड़े से शब्दों में बहुत कुछ कह देती है. रामदरश जी कभी आगे बढ़ने की दौड़ में नहीं रहे. चुपचाप लिखना-पढ़ना ही उन्हें अच्छा लगता है. ऐसे में यह सीख देने वाले बहुत हैं कि अगर आगे बढ़ना है तो घर छोड़ो. लेकिन रामदरश जी चुपचाप घर की छांह में लिखते-पढ़ते हुए अपने और दूसरों के सपने गढ़ते रहते हैं, और आश्चर्य, तभी अचानक उनके स्वर दूर-दूर तक जा पहुंचते हैं और हर किसी का हृदय झंकृत करने लगते हैं-
बैठ छांह में अपने घर की कुछ लिखना-पढ़ना,
कितना अच्छा लगता है सबके सपने गढ़ना.
मची हुई है रेलपेल महफिल में रहने की,
पाने को तालियां, बात मंचों से कहने की.
कहते हैं वे घर छोड़ो, यदि है आगे बढ़ना.
कहां-कहां से दर्दों के पाहुन आ जाते हैं,
निकल यहां से स्वर मेरे बाहर छा जाते हैं,
मैं भूगामी, चढ़ें शिखर पर जो चाहें चढ़ना.यों रामदरश जी भले ही भूगामी रहे हों, पर उनकी कविता शिखरों पर विराजमान कवियों से कहीं ज्यादा दूर-दूर तक जा पहुंचती है और अपना होना साबित करती है. फिर यह बात भी कम चकित नहीं करती कि इधर की रामदरश जी की कविताएं ही नहीं, उनके गीत भी बिल्कुल बदले-बदले से हैं और कवि के मन की विकलता के साथ-साथ नए युग की नई परिस्थितियों को भी बड़े सधे हुए अल्फाज में प्रकट कर देते हैं.
इसी तरह हिंदी के अत्यंत प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान से सम्मानित कविता संग्रह 'मैं तो यहां हूं' में रामदरश जी की कविताएं एक बड़ी उठान लिए हुए हैं और गहरी संवेदना के साथ अपनी बात कहती हैं. इस संग्रह की शीर्षक कविता 'मैं तो यहां हूं' में कवि ईश्वर को मंदिर में नहीं, वहां देखता है, जहां प्रकृति का मुक्त वैभव लह-लह कर रहा है तथा धरती और आकाश के बीच एक खुला संवाद हो रहा है-सभी चले गए थे
मंदिर में अपनी मुरादों के चिथड़े छोड़कर
मैं अकेले बैठा था प्रभु-मूर्ति के सामने
और बातें कर रहा था सुख-दुख की
लेकिन मूर्ति जड़ बनी रही
ऊबकर मंदिर से बाहर निकला तो देखा-
चारों ओर पुष्पित खेत खिलखिला रहे थे
चहचहाती चिड़ियों का महारास मचा था
और प्रकृति के इस मुक्त स्पंदन और आनंदलीला के बीच अचानक कवि को महसूस हुआ, जैसे चारों ओर एक आवाज़ गूंज रही है- 'अरे, मैं तो यहां हूं, यहां हूं, यहां हूं!'संग्रह की एक और बड़ी संवेदनात्मक कविता है, 'वाणी विहार'. बरसों पहले जिन सुधाकर जी ने अपने सभी मित्र अध्यापकों को बुला-बुलाकर बड़ी सहृदयता के साथ वाणी विहार बसाया था, उनके निधन पर अतीत के कुहासे में झांकते हुए रामदरश जी को एक साथ बहुत कुछ याद आता चला जाता है. बड़ी तकलीफ के साथ वे कविता में वाणी विहार की यह करुण कथा भी पिरो देते हैं, कि देखते ही देखते वह कैसे वणिक विहार में बदल गया और बाजारवाद ने उस सारी प्रियता को लील लिया, जो वाणी विहार की अपनी पहचान थी. 'दिल्ली में गांव लिए' भी एक अलग सी कविता है. इसमें दो मित्रों की कहानी है, जो एक साथ गांव से दिल्ली शहर में आए. दोनों एक ही जमीन के थे, एक ही जैसे हालात. उम्मीद थी, कि वे साथ-साथ रहते हुए एक-दूसरे का सहारा बनेंगे. पर एक को दिल्ली की ऊपरी चमक-दमक का आकर्षण अपने में लपेटता चला गया और दूसरे के साथ गांव अब भी चल रहा है. यों एक ही जगह से वे चले और फिर एक-दूसरे से दूर होते चले गए. रामदरश जी में यह दर्द बहुत गहरे बसा हुआ है और उनकी कई कविताओं में रह-रहकर छलक उठता है, जिसमें उनके ईमानदार गंवई मन की व्यथा है.
'आभारी हूं कविते' भी संग्रह की एकदम अलग सी कविता है. रामदरश जी ने सिर्फ कविताएं लिखीं ही नहीं, कविताओं को जिया भी है. और बदले में कविता ने भी उन्हें अंदर-बाहर से भर दिया है. अब कविता उनकी पहचान भी है, और जीवन भी-
तुमने मुझे कितना कुछ दिया
मेरी कविते
जो बीत गया,
वह भी मुझमें जीवित है तुम्हारे सहारे
आज के जलते समय में भी
मेरा मन पा लेता है कोई घनी छांह
और मनुष्यता के प्रति
मरता हुआ विश्वास
फिर-फिर जी उठता हैइसी तरह 'अँगीठी और मैं' कविता में रामदरश जी के भीतर का देसी ठाट देखा जा सकता है. दिल्ली की भीषण ठंड में वे अँगीठी के पास बैठे हाथ सेंक रहे हैं और यह आनंद उन्हें एक ऊष्मिल अहसास में लपेट लेता है-
इस भयानक ठंड में
अँगीठी के पास बैठा हूं
दहकते कोयले की हंसी
ऊष्मा के फूल बन जा रही है मेरी त्वचा पर
मन गुनगुना रहा है
लगता है
मौन भाव से एक आत्मीय संवाद चल रहा है
मेरे और अँगीठी के बीचयह एक सुखद आश्चर्य है कि रामदरश जी की कविता-यात्रा के प्रारंभ से लेकर अब तक उनकी यह सहजता और देसीपन दोनों बरकरार रहे हैं और कविता की वह सादगी भी, जिससे वह हर होंठ पर चढ़ जाती है और हर दिल में उतरकर गुनगुनाने लगती है. रामदरश जी की कविता की यह सर्वव्याप्ति ही उनकी शक्ति भी है, जिससे उनका कद समय के साथ निरंतर बढ़ता चला जाता है.
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